प्रस्तावना –
नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे अनुसूचित जनजातियों के वारे में बात करेंगे |
अनुसूचित जनजातियों के सम्बन्ध में संवैधानिक व्यवस्थाएँ
अंग्रेजों के समय से ही भारत सरकार जनजातियों के सुधार के लिए प्रयत्नशील रही है। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें आधुनिक चिकित्सा की सुविधा जुटायी जिससे उनकी मृत्यु-दर में कमी हुई। अंग्रेजों ने उनके अमानवीय रैति-रिवाजों पर भी प्रतिबन्ध लगाया। ब्रिटिश सरकार की नीति तुष्टिकरण की नीति थी। ब्रिटिश सरकार ज़नज़ातियों के उत्थान की अपेक्षा उन पर नियन्त्रण मे अधिक रुचि रखती थी। अत: उनकी नीति से लाभ की अपेक्षा हानियाँ ही अधिक हुईं। अंग्रेज सरकार की नीति नकारात्मक थी। वे तब तक कोई हस्तक्षेप नहीं करते जब तक कि कोई संकट पैदा नहीं हो जाता।
अनुसूचित जनजातियों की प्रशासनिक व्यवस्था-
आंध्र प्रदेश, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश महाराष्ट्र उड़ीसा और राजस्थान के कुछ क्षेत्र अनुच्छेद 224 और संविधान की पांचवी अनुसूची के अन्तर्गत “अनुसूचित’ किये गये हैं। इन राज्यों के राज्यपाल प्रति वर्ष अनुसूचित क्षेत्रों की रिपोर्ट राष्ट्रपति को देते हैं। असम, मेघालय और मिजोरम का प्रशासन संविधान की छठी अनुसूची के उपबन्धों के आधार पर किया जाता है। इस अनुसूची के अनुसार उन्हें स्वायत्तशासी जिलों में बांटा गया है।
इस प्रकार के आठ जिले हैंअसम के उत्तरी कछार पहाड़ी जिले तथा मिकिर पहाड़ी जिले, मेद्यालय के संयुक्त खासी-जैयन्तिया, जोवाई और गारो पहाड़ी जिले तथा मिजोरम के चकमा, लाखेर और पावी जिले प्रत्येक स्वायत्तशासी जिले में एक जिला परिषद् होती है जिसमें 30 से अधिक सदस्य नहीं होते। इनमें चार मनोनीत हो सकते हैं और शेष का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर किया जाता है। इस परिषद को कुछ प्रशासनिक, वैधानिक और न्यायिक अधिकार प्रदान किये गये हैं।
अनुसूचित जनजातियों की संवैधानिक व्यवस्थाएँ –
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद स्वाधीन भारत के संविधान में जनजातियों एवं पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, मान्यता एवं धर्म की स्वतन्त्रता और प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता का आश्वासन दिया गया है। संविधान में मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है जो नागरिकों को यह विश्वास दिलाते हैं कि धर्म, वर्ग, लिग, जाति, प्रजाति एवं अन्य के आधार पर भेदभाव नहीं बरता जायेगा। इससे जनजातियों के प्रति अब तक बरते गये भेदभाव की समाप्ति होती है।
संविधान में नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख किया गया है जिनमें कहा गया है कि राज्य कमजोर वर्ग के लोगों विशेषकर अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के शैक्षणिक व आर्थिक हितों को बढ़ावा देगा तथा उन्हें सामाजिक अन्याय एवं शोषण से सुरक्षा प्रदान करेगा। संविधान में जनजातियों के लिए दो प्रकार की व्यवस्था की गयी है संरक्षी एवं विकासी संरक्षी प्रावधानों का उद्देश्य जनजातीयहितों की सुरक्षा करना है और विकासी प्रावधानों का उद्देश्य उन्हें प्रगति के अवसर प्रदान करना है।
इन दोनों प्रकार के प्रावधानों का उल्लेख करने वाले संविधान के अंश इस प्रकार से हैं: –
- संविधान के पन्द्रहवें भाग के 325 अनुच्छेद में कहा गया है कि किसी को भी धर्म, प्रजाति, जाति एवं लिंग के आधार पर मताधिकार .से वंचित नहीं किया जायेगा।
- संविधान के बारहवें भाग के 275 अनुच्छेद के अनुसार, केन्द्रीय सरकार राज्य को जनजातीय कल्याण एवं उनके उचित प्रशासन के लिए विशेष धनराशि देगी।
- 335वां अनुच्छेद आश्वासन देता है कि सरकार नौकरियों में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखेगी।
- सोलहवें भाग के 330 व 332वें अनुच्छेद में लोक सभा एवं राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित किये गये हैं।
- पांचवीं ते सूची में जनजातीय सलाहकार परिषद की नियुक्ति की व्यवस्था है जिसमें अधिकतम बीस सदस्य हो सकते हैं, जिनमें से तीन चौथाई सदस्य राज्य विधान सभाओं के अनुसूचित जनजातियों के होंगे।
- 338वें अनुच्छेद में राष्ट्रपति द्वारा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए विशेष अधिकारी की नियुक्ति की व्यवस्था की गग्यी है। यह अधिकारी प्रतिवर्ष अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगा।
- संविधान में कुछ अनुच्छेद ऐसे भी हैं जो मध्य प्रदेश, असम, बिहार, उड़ीसा, आदि के जनजाति पत्रों के लिए विशेष सुविधाएं द्वेने से सम्बन्धित हैं। इन लोगों के लिए नौकरियों में प्रार्थना-पत्र देने एवं आय गरीमा में छूट दी गयी है। शिक्षण संस्थाओं में भी इन्हें शुल्क से मुक्त किया गया है एवं कुछ स्थान इनकें गए सुरक्षित रखे गये हैं। संविधान मैं रखे गये विभिन्न प्रावधानों का उद्देश्य जनजातियों को देश के अन्य नागरिकों के समकक्ष लागा है।
- उन्हें देश की मुख्य जीवनधारा के साथ जीड़ना तथा एकीकरण करना है जिससे कि वे देश की आर्थिक एवं राजनौतिक व्यवस्था में भागीदार बन सकें। पण्डित नेहरू भी जनजातियों के विकास में काफी कृषि रखते थे। वे नहीं चाहते थे कि उन पर कोई चीज थोपी जाय। उनका कहना था कि हमें उनकी कला एवं संस्कृति के विकास को बढ़ावा देना चाहिए, उनके भू-अधिकारों का आदर करना चाहिए, उनमें स्वयं का शासन करने कौ क्षमता एवं मानवीय चरित्र का विकास करना चाहिए।
- अनुच्छेद 324 एवं 244 में राज्यपालों को जनजातियों के सन्दर्भ में विशेषाधिकार प्रदान किये गये हैं।
अनुसूचित जनजातियों की विधानमण्डलों में प्रतिनिधित्व-
संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 के द्वारा लोकसभा तथा शणज्यों के विधानमण्डलों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में ध्यान सुरक्षित किये गये हैं। प्रारम्भ में यह व्यवस्था 20 वर्षो के लिए थी जो बढ़ाकर 25 जनवरी, 2000 तक कर दी गयी तथा अथ इसे 2010 तक के लिए बढ़ाया जा चुका है।
संसदीय अधिनियम के द्वारा उन कैद शासित क्षेत्रों में जहाँ विधानसभाएँ हैं, इस प्रकार का आरक्षण किया गया है। वर्तमान में लोकसभा में 4 और विधान सभाओं में 527 स्थाव अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित किये गये हैं। पंचायती राज ण्यवस्था के लागू होने के साथ ही इन लोगों के लिए ग्राम पंचायतों एवं अन्य स्थानीय निकायों में भी स्थान सुरक्षित किये गये हैं।
अनुसूचित जनजातियों की कल्याणकारी एवं सलाहकारी संस्थाएँ-
केन्द्र सरकार के गृह मन्त्रालय का यह दायित्व है कि बह अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कल्याण के लिए योजनाएँ बनाये और उन्हें क्रियान्वित करें। अगस्त 1978 में संविधान के अनुच्छेद 348 के तहत अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए एक कमीशन की स्थापना की गयी। इसका एक चेयरमैन और चार सदस्य बनाये गये। यह कमीशन 1955 के नागरिक अधिकार अधिनियम के अन्तर्गत संविधान में इन लोगों के लिए सुरक्षा झम्बन्धी किये गये प्रावधानों के बारे में जांच करता है और उचित उपाय सुझाता है।
संसदीय समितियाँ-
भारत सरकार ने 1968-1971 तथा 1973 में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के संविधान में प्रदत्त सुरक्षा एवं उनके कल्याण की जांच के लिए तीन संसदीय समितियाँ भी नियुक्त की। वर्तमान मैं संसद की एक स्थायी समिति बनायी गयी है जिसके सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष रखा गया है। इस समिति के 30 सदस्य होते हैं जिनमें से 2 लोकसभा और 100 राज्यसभा में से लिये जाते हैं।
राज्यों में कल्याण विभाग-
राज्य सरकारों एवं केन्द्रशासित क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की देख-रेख एवं कल्याण के लिए पृथक विभागों की स्थापना की गयी है। प्रत्येक राज्य का अपना विशिष्ट प्रशासन का तरीका है। बिहार, मध्य प्रदेश और उड़ीसा में संविधान के अनुच्छेद 164 के अन्तर्गत अनुसूचित जनजातियों के कल्याण हेतु अलग मन्री नियुक्त किये जाते हैं। कुछ राज्यों में केन्द्र की भांति संसदीय समितियों के समान विधानमण्डलीय समितियाँ बनायी गयी हैं।
राजकीय सेवाओं में आरक्षण-
अखिल भारतीय आधार पर खुली प्रतियोगिता द्वारा कौ जाने वाली नियुक्तियों या अन्य प्रकार से की जाने वाले नियुक्तियों में अनुसूचित जनजातियों के 74 % स्थान सुरक्षित किये गये है। ग्रुप ‘सी” और ‘डी’ के पदों के लिए जिनमें स्थानीय और जान्तीय आधार पर नियुक्तियाँ की जाती हैं, प्रत्येक प्रान् और केन्द्रशासित प्रदेश अनुसूचित जातियों की जनसंख्या के अनुपात में ही स्थान पुरक्षित रखता है।
ग्रुप ‘बी’, ‘सी’ और ‘डी’ में होने वाली विभागीय परीक्षाओं के आधार पर की जाने वाली नियुवितियों तथा ग्रुप ‘बी’, ‘सी’, ‘डी” और ‘ए’ मैं पदोग्नति में भौ अनुसूचित जनजातियों कै लिए 11 % स्थान सुरक्षित किये गये हैं, यदि उनमें 66 %से अधिक सीधी भर्ती न की जाती हो। ग्रुप ‘ए’ जिनमें 2,250 है, या इससे कम वेतन वाले पदों पर कौ जाने वाली पदोष्नतियों में भी स्थान सुरक्षित किये गये हैं।
जनजातियों के लोगों को नौकरियों में प्रतिनिधित्व देने के लिए कई प्रकार की छूट दी गयी है जैसे आयु-सीमा में छूट, उपयुक्तता के मानदण्ड में छूट, चयन सम्बन्धी अनुपयुक्तता में छूट, अनुभव सम्बन्धी योग्यता में छूट तथा ग्रुप ‘ए’ के अनुसन्धान, वैज्ञानिक तथा तकनीकी सम्बन्धी स्तरों में छूट। राज्य सरकारों ने भी अनुसूचित जातियों को राजकीय सेवाओं में भर्ती करने और उन्हें पदोन्नतियाँ देने के सम्बन्ध में कई प्रावधान किये हैं।
केन्द्र सरकार के विभिन्न मन््रालयों से सम्पर्क करने कें लिए कुछ अधिकारियों की नियुक्तियाँ की गयी है जो यह देखेंगे कि इनके लिए स्थान सुरक्षित रखने के आदेशों का पालन हुआ है या नहीं।
अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए कल्याण योजनाएँ –
पंचवर्षीय योजनाएँ-
केन्द्र सरकार और राज्य सरकार ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के कल्याण के लिए विशेष प्रयत्न किये है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में इनके कल्याण के लिए विशिष्ट कार्य किये गये हैं। प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) में आदिवासी विकास (जनजातीय कल्याण) के लिए 19.9 करोड़ रु. का बजट प्रावधान किया गया था जो सातवीं योजना में बढ़कर 6,955 करोड़, आठवीं योजना में 21 ,000 करोड़ रु. हो गया और दसवीं योजना में लगभग 1,754 करोड़ रु. का प्रावधान है।
ये आंकड़े चौंकाने वाले और भ्रम पैदा करने वाले हैं। इतनी अधिक धनराशि के व्यय के पश्चात् भी जनजातियों का जितना विकास हुआ है, इसका गम्भीरता से मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। पाँचवीं योजना में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के उत्थान के लिए नयी रणनीति अपनायी गयी। जिन क्षेत्रों में 50% या इससे अधिक जनजातियां रहती हैं, उन्हें अलग दर्जा देकर उनके लिए अलग से उप-योजनाएँ तैयार करने की बात कही गयी। 19 राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों में जनजाति उप-योजनाएँ प्रारम्भ की गयी।
इन उप-योजनाओं का उद्देश्य जनजाति और गैर-जनजाति क्षेत्र के विकास की दूरी को कम करना और जनजातीय लोगों के जीवन में सुधार लाना है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए जनजातियों का सभी प्रकार का शोषण समाप्त करने, विशेष रूप से भूमि, साहूकारी, कषि और वनउपज में होने वाले शोषण को समाप्त करने को प्राथमिकता दी गयी। इन उप-योजनाओं के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों द्वारा वित्त (धन) दिया जाता है।
छठी योजना में इन परियोजनाओं का विस्तार कर 75 प्रतिशत जनजातीय जनसंख्या को इनके अन्तर्गत लाने का प्रावधान किया गया। छठी योजना में जनजातीय क्षेत्रों में प्रशिक्षण,आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी आवश्यक सुविधाओं को उच्च प्राथमिकता दी गयी। आदिम जनजातियों के लिए परियोजना रिपोर्ट और कार्यक्रम बनाने पर विशेष ध्यान दिया गया।
छठी योजना में जनजातीय कल्याण पर 5,535 करोड़ रुपये खर्च किये गये। सातवीं पंचवर्षीय योजना में अनुसूचित जनजातियो के कल्याण हेतु केन्द्र द्वारा 7,072.63 -करोड़ रुपए खर्च किए गए। उन राज्यों में जहां जनजातियों की बहुलता है ‘जनजाति उप-योजना’ के अन्तर्गत 30 लाख परिवारों को अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया गया।
जनजातीय क्षेत्रों में कृषिगत बहु-उद्देशीय सहकारी समितियों को बढ़ावा दिया गया। स्थानान्तरित ‘कृषि पर रोक लगाने के प्रयत्न किये गये। लगभग दो लाख जनजातीय परिवार जो कि बन प्रदेशों में स्थितं 5 हजार गाँवों में निवास करते हैं, का उस भूमि पर कोई अधिकार नहीं है, जिसे वे जोतते हैं। उन्हें विकास की सुविधा देने के प्रयत्न किये गये। जनजातीय स्त्रियों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उन्हें आर्थिक सहायता दी गई तथा “महिला समितियाँ’ स्थापित की गईं।
उनकी शिक्षा के लिए भी प्रयत्न किये गये। आठंवीं पंचवर्षीय योजना में अनुसूचित जनजातियों के विकास से सम्बन्धित विभिन्न योजनाओं पर 12,500 करोड़ रुपए खर्च किए गए। दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) में जनजातीय कल्याण पर 1,754 कंरोड़ रुपए खर्च करने का प्रावधान किया गया था। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों को आ्थिक सहायता देने के लिए अनुसूचित जाति और जनजाति वित्त और विकास निगम की स्थापना की गई है। देश में वर्तमान में इस प्रकार के निगम 24 राज्यों में कार्यरत हैं।
योजना कार्यक्रम-
पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए केन्द्र एवं ग़ज्य सरकारों द्वारा कई प्रकार की परियोजनाएँ चलायी गयी हैं जो निम्न प्रकार हैं
छात्रवृत्तियाँ–
अनुसूचित जातियों और जनजातियों के छात्रें को उनके संरक्षकों की आय के आधार पर मेट्रिकोत्तर छात्रवृत्तियाँ भी दी जाती हैं। मैट्रिक से ऊपर की कक्षाओं के लड़कों के लिए 1,000 रु, और लड़कियों के लिए 1,200 रु. श्रतिवर्ष छात्रवृत्ति देने की व्यवस्था है। जहाँ 1944-45 में मैट्रिक से ऊपर की कक्षाओं के लिए अध्ययन करने वाले अनुसूचित जातियों के 114 तथा 2002-03 में अनुसूचित जनजातियों के 105 छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी गयी |
वहाँ इन दोनों ही श्रेणियों के विद्यार्थियों के लिए ऐसी छात्रवृत्तियों की संख्या बढ़कर अब 20 लाख से अधिक पहुँच गई। विद्यार्थियों की सुविधा हेतु वर्ष 1978-79 से “बुक बैंक” योजना भी चालू की गयी है।
प्रशिक्षण एवं शिक्षण व पथ-
प्रदर्शन केंद्र अनुसूचित जातियों और जनजातियों को रोजगार में सहायता देने के लिए दो कार्यक्रम परीक्षा-पूर्व प्रशिक्षण केद्ध तथा शिक्षण व पथ-प्रदर्शन केन्द्र प्रारम्भ किये गये हैं। इन लोगों का नौकरियों में प्रतिनिधित्व बढ़े, इस उद्देश्य से वर्तमान में 101 परीक्षा-पूर्व प्रशिक्षण केन्द्र कार्यरत हैं। इलाहाबाद और तिरुचिरापल्ली में इन्जीनियरिंग सेवाओं की परीक्षाओं के लिए प्रशिक्षण केन्द्र खोले गये हैं।
अनुसूचित जनजातियों के आवेदकों में आत्मविश्वास पैदा करने एवं साक्षात्कार सम्बन्धी ज्ञान देने के लिए दिल्ली, कानपुर, जबलपुर और चेन्नई में शिक्षण एवं पथ-प्रदर्शन केन्द्र स्थापित किये गये हैं। प्राथमिक विद्यालय खोलने के नियमों में कुछ ढील दी गई है। 300 के स्थान पर 200 लोगों की आबादी के लिए एक किलोमीटर के दायरे में एक प्राथमिक विद्यालय, उच्च प्राथमिक स्तर तक सभी राज्यों के सरकारी-स्कूलों में शिक्षा-शुल्क की समाप्ति, 86वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 में 6-14 वर्ष आयु वर्ग के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा |
कस्तूरबा गांधी स्वतंत्र विद्यालय योजना का उद्देश्य अ.जा., अ.ज.जा. वर्गों की महिलाओं में साक्षरता को बढ़ावा देता है। 10 प्रतिशत से कम साक्षरता (महिलाओं में) जहां है वैसे जिलों में 500 आवासीय स्कूल खोलने का प्रस्ताव है। प्रतिवर्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग 25 छात्रवृत्तियां, 20 रिसर्च एसोशिएट शिप, 50 फेलोशिप प्रदान करता है। समाज विज्ञानों के लिए 50 जूनियर फेलोशिप देता है। माध्यमिक स्तर पर 13,000 छात्रवृत्तियाँ पूर्णया अ.ज., अ.ज.जा. के छात्रों के लिए रखी जाती हैं। 146 जिलों की कम महिला साक्षरता जिलों के रूप में पहचान की गई हैं।
जनजाति क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण-
जनजाति युवकों की विघटनकारी गतिविधियों से रोकने एवं उन्हें रोजगार के अवसर देने के लिए 1992-93 से केन्द्र ने जनजाति क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करने की योजना प्रारम्भ की। वर्तमान में ऐसे 25 केन्द्र कार्यरत हैं।
छात्रावास-
जिन क्षेत्रों में अनुसूचित जातियों व जनजातियों की छात्राओं के लिए पर्याप्त सुविधा नहीं है, वहाँ नये बालिका छात्रावास बनाए जाते हैं। इसी प्रकार से सन् 1989-90 से ही जनजाति छात्रों के लिए बालक छात्रावास भी बनाए गए हैं। जनजाति उपयोजना क्षेत्र में 1990-91 से ही आश्रम स्कूल की योजना प्रारम्भ की गई है। इसमें 50% खर्च केन्द्र सरकार देती है तथा 50% राज्य सरकारें। वर्ष 1998-99 तक 27 आश्रम विद्यालय बनाए मए
पहाड़ी क्षेत्रों का विकास योजना-
जिन पहाड़ी क्षेत्रों में जनजाति के लोग रहते हैं, उनके विकास हेतु यह योजना केन्द्र द्वारा चलाई जा रही है। इसके अन्तर्गत पुल व सड़कों का निर्माण तथा ऊर्जा उत्पादन के प्लाण्ट लगाए गए हैं।
कम साक्षरता वाले क्षेत्रों में जनजाति छात्रों की शिक्षा की योजना-
1993-94 से उन क्षेत्रों में प्रारम्भ की गई है जहाँ स्त्रियों की साक्षरता का प्रतिशत दो से भी कम है।:यह योजना 8 राज्यों के 48 जिलें में चलाई जा रही है। इसका उद्देश्य महिला साक्षरता में शत-प्रतिशत वृद्धि करना है। इस योजना में छात्रावारों की भी व्यवस्था की गई है। यह योजना स्वयंसेवी संगठनों के माध्यम से चलाई जा रही है।
विदेशों में पढ़ने वाले छात्रों के लिए छात्रवृत्तियाँ-
सन् 1955 से ही विदेशों में पढ़ने वाले अनुसूचित जातियों व जनजातियाँ के मेधावी छात्रों को छात्रवृत्तियाँ दी. जा रही हैं। यह छात्रवृत्ति प्रति वर्ष अनूसूचित जनजातियों के छ: छात्रों को दी जाती है। :
जनजातीय अनुसन्धान संस्थाएँ-
इस समय देश में जनजातियों सम्बन्धी अनुसन्धान करने के लिए अनेक अनुसन्धान केन्द्र हैं। इनके कार्यों में समन्वय स्थापित करने के लिए एक 30 सदस्यीय केन्द्रीय अनुसन्धान सलाहकार परिषद का गठन किया गया है। यह परिषद् अनुसन्धान संस्थाओं के नीति-निर्माण में पथ-प्रदर्शन का कार्य करती है। वर्तमान में देश में ऐसे 14 अनुसन्धान संस्थान हैं।
सहकारी समितियाँ-
जनजातीय लोगों का शोषण रोकने के लिए सरकार की मदद से जनजातीय क्षेत्रों में वन-श्रम, बहु-उद्देशीय श्रम-ठेका एवं निर्माण, क्रय-विक्रय तथा साख सहकारी समितियों की व्यापक मात्रा में स्थापना की गयी है जो कि सही दिशा में एक कदम है। इस सन्दर्भ में सरकार ने ट्रीफेड की स्थापना की है जो फसलों को बेचने एवं भण्डारण में मदद करती है तथा मन्दी आने पर उत्पादकों को सरकार से आर्थिक सहायता दिलवाती है।