अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्ग का उत्थान , MP BOARD.

अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्ग का उत्थान , MP BOARD. 2024

प्रस्तावना –

नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्ग का उत्थान के वारे में बात करेंगे |

अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्ग का उत्थान 

सामान्यत: अनुसूचित जातियों को अस्पृश्य जातियाँ भी कहा जाता है। अत: इनकी परिभाषा अस्पृश्यता के आधार पंश की गयी है। साधारणत: अनुसूचित जाति का अर्थ उन जातियों से खगाया जाता है जिन्हें धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक सुविधाएँ दिलाने के लिए जिनका उल्लेख संविधान की अनुसूची में किया गया है। इन्हें अछूत जातियाँ, दलित वर्ग, बाहरी जातियाँ और हरिजन, आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

अनुसूचित जातियों को ऐसी जातियों के आधार पर परिभाषित किया गया है जो घृणित पेशों के द्वारा अपनी आजीविका अर्जित करती हैं, किन्तु अस्पृश्यता के निर्धारण का यह सर्वमान्य आधार नहीं है। इसका कारण यह है कि अनेक ऐसी जातियाँ भी हैं जो घृणित व्यवसायों में लगी हुई नहीं हैं, पर फिर भी उन्हें संवैधानिक रूप से अनुसूचित जाति माना जाता है। अस्पृश्यता का सम्बन्ध प्रमुखत: पवित्रता एवं अपविक़्ता की धारणा से है।

हिन्दू समाज में कुछ व्यवसायों या कार्यों को पवित्र एवं कुछ को अपवित्र समझा जाता रहा है। यहाँ मनुष्य या पशु-पक्षी के शरीर से निकले हुए पदार्थों को अपवित्र माना गया है। ऐसी दशा में इन पदार्थों सम्बन्धित व्यवसाय में लगी जातियों को अपवित्र समझा गया और उन्हें अस्पृश्य कहा गया। अस्पृश्यता समाज की एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत अस्पृश्य समझी जाने वाली जातियों के व्यक्ति सवर्ण हिन्दुओं को स्पर्श नहीं कर सकते। अस्पृश्यता का तात्पर्य है ‘जो छूने योग्य नहीं है।’

अस्पृश्यता एक ऐसी धारणा है जिसके एक व्यक्ति 1२४ व्यक्ति को छूने, देखने और छाया पड़ने मा मात्र से अपवित्र जाता है। सवर्ण हिन्दुओं को अपवित्र होने से बचाने के लिए अस्पृश्व लोगों के रहने के लिए अलग से व्यवस्था की गयी, उन पर अनेक निर्योग्यताएँ लाद दी गयी और उनके सम्पर्क से बचने के कई ठपाय किये गये। अस्पृश्यों के अन्तर्गत वे जातीय समृह आते हैं जिनके धरे से अन्य व्यक्ति अपवित्र हो जायें और जिन्हें पुन; पवित्र होने के लिए कुछ विशेष संस्कार करने पढ़ें। 

अनुसूचित जातियों के उत्थान हेतु संवैधानिक व्यवस्थाएं

संविधान में अनुसूचित जातियों के लिए विशेष संरक्षण की व्यवस्था की गयी है जो इस प्रकार है: –

शिक्षा सम्बन्धी सुविधाएँ-

अन्य लोगों के समान स्तर पर लाने और प्रगति के पथ पर आगे बढ़ने में सहायता करने के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों व पिछड़े वर्गों के लिएं शिक्षा का विशेष प्रबन्ध किया गया। देश की सभी सरकारी शिक्षण-संस्थाओं में अनुसूचित जातियों एवं आदिम जातियों के विद्यार्थियों के लिए नि:शुल्क शिक्षा की व्यवस्था की गयी। सन्‌ 1944-45 से अस्पृश्य जातियों के छात्रों को छात्रवृत्तियाँ देने की योजना प्रारम्भ की गयी

इन जातियों के विद्यार्थियों में शिक्षा का अधिक से अधिक प्रसार करने हेतु न केवल उन्हें नि:शुल्क शिक्षा की सुविधा और छात्रवृत्तियाँ ही दी गयीं बल्कि इनके लिए मुफ्त पुस्तकों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं का प्रबन्ध भी किया गया। कई स्थानों पर तो इन्हें वस्त्र एवं भोजन भी स्कूल की ओर से ही दिया जाता है। अनेक राज्य सरकारों ने तो समाज-कल्याण विभागों के माध्यम से अनुसूचित जातियों तथा आदिम जातियों के विद्यार्थियों के लिए छात्रावास चला रखे हैं।

इन जातियों के प्रतिभाशाली छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्ति हेतु विदेशों में जाकर शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्रवृत्तियाँ भी प्रदान की जाती हैं। छात्रावासों में अन्य जातियों के विद्यार्थियों के साथ मिलकर रहने को प्रोत्साहित करने के लिए इन जातियों के लिए स्थान सुरक्षित रखे गये हैं। मेडिकल, इंजीनियरिंग तथा अन्य औद्योगिक शिक्षण संस्थाओं में इनके प्रवेश हेतु विशेष व्यवस्था की गयी है।

संघीय लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित अखिल भारतीय एवं अन्य केन्द्रीय सेवाओं की परीक्षा के लिए तैयारी करने के उद्देश्य से अनुसूचित जातियों एवं आदिम जातियों के विद्यार्थियों के लिए 9 प्रशिक्षण केन्द्र और राज्यों के लोक सेवा आयोग द्वारा ली जाने वाली परीक्षा की तैयारी हेतु 132 पूर्व-परीक्षा प्रशिक्षण केन्द्र चल रहे हैं। इन जातियों के छात्रों की शिक्षा पर सरकार शुरू से काफी धनराशि खर्च कर रही है इन सब सुविधाओं के उपलब्ध होने से अनुसूचित जातियों में शिक्षा का काफी प्रसार हुआ है। 

संवैधानिक प्रावधान-

संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान किये गये हैं जिनके द्वारा अस्पृश्यता निवारण तथा पिछड़े वर्गों के कल्याण की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 15(1) में कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान अथवा उनमें से किसी एक के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा ।

मकानों, सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश करने और साधारण जनता के उपयोग के लिए बने कुओँ, तालाबों, स्नान-घाटों, सड़कों आदि के प्रयोग से कोई किसी को नहीं रोकेगा। अनुच्छेद 17 के अनुसार अस्पृश्यता का अन्त कर उसका किसी भी रूप में प्रचलन निषिद्ध कर दिया गया है। अनुच्छेद 19 के आधार पर अस्पृश्यों की व्यावसायिक निर्योग्यता को समाप्त किया जा चुका है और उन्हें किसी भी व्यवसाय को अपनाने की आजादी प्रदान की गयी है।

अनुच्छेद 25 में हिन्दुओं के सार्वजनिक धार्मिक स्थानों के द्वार सभी जातियों के लिए खोल देने की व्यवस्था की गयी है। अनुच्छेद 29 के अनुसार राज्य द्वारा पूर्ण अथवा आंशिक सहायता प्राप्त किसी भी शिक्षण संस्था में किसी नागरिक को धर्म, जाति वंश अथवा भाषा के आधार पर प्रवेश से नहीं रोका जा सकता। अनुच्छेद 46 में कहा गया है कि आर्थिक रूप से दुर्बलतर लोगों जिनमें अनुसूचित जातियाँ तथा आदिम जाति आती हैं, की शिक्षा सम्बन्धी तथा आर्थिक हितों की रक्षा करेगा. और सभी प्रकार के सामाजिक अन्याय एवं शोषण से उनको बचायेगा।

अनुच्छेद 330, 332 और 334 के अनुसार अनुसूचित जातियों तथां आदिम जातियों के लिए संविधान लागू होने के 20 वर्ष तक लोकसभा, विधान सभाओं, आम पंचायतों और स्थानीय निकायों में स्थान सुरक्षित रहेगे। बाद में यह अवधि दस-दस वर्ष के लिए तीन बार और बढ़ा दी गयी। अनुच्छेद 335 में कहा गया है कि संघ या राज्य के कार्यों से सम्बन्धित सेवाओं एवं पदों के लिए नियुक्तियाँ करने में अनुसूचित जातियों तथा आदिम जातियों के छितों का ध्यान रखा जायेगा।

अनुच्छेद 146 एवं 338 के अनुसार अनुसूचित जातियों के कल्याण एवं हितों की रक्षा के लिए राज्य में सलाहकार परिषदों एवं पथक-प्रथक्‌ विभागों की स्थापना का आञ्रावधान किया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि राष्ट्रपति अनुसूचित जातियों और अनुसूचित आआदिम जातियों के लिए एक विशेष पदाधिकारी नियुक्त करेगा। इन संवैधानिक व्यवस्थाओं के द्वारा अस्पृश्यता निवारण एवं अनुसूचित जातियों तथा पिछड़े वर्गों के उत्थान का सरकार के द्वारा विशेष अयत्न किया गया है। 

कल्याण एवं सरनाहकार संगठन-

केन्द्र एवं राज्यों में अनुसूचित जातियों, जनजातियों एवं अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण हेतु अलग-अलग चिभागों की व्यवस्था की गयी है। कई राज्यों में तो अनुसूचित जातियों य पिछड़े यर्गों के कल्याण को ध्यान रखकर पृथक्‌ मन्त्रालय भी स्थापित किये गये हैं। केन्द्र-स्तर पर विभिन्न कल्याण कार्यक्रमों का दायित्व गृह मन्त्रालय का है। भारत सरकार ने सन्‌ 1968, 1971 एवं 1973 में अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए चल रहे कल्याण कार्यों की प्रगति का मूल्यांकन करने हेतु संसदीय समितियाँ भी गठित की। कुछ राज्यों ने भी राज्य-स्तर पर इसी अकार की समिति बनायी हैं।

इनके अलावा अनुसूचित जातियों व जनजातियों के कल्याण-कार्यों की समय-समय पर जांच करने और इस सम्बन्ध में राष्ट्रपति को जानकारी प्रदान करने हेतु एक विशेष अधिकारी जिसे अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के कमिश्नर के नाम से पुकारा जाता है, की व्यवस्था भी की गयी है। वर्तमान में अनेक ऐच्छिक संगठन भी अनुसूचित जातियों व अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण-कार्यों में अपने आपको लगाये हुए हैं। 

विधान मण्डलों एयं पंचायतों में प्रतिनिधित्व-

संविधान में अनुसूचित जातियों के लिए उनकी संख्या के अनुपात में राज्यों की विधान सभाओं तथा पंचायतों में स्थान सुरक्षित रखे गये हैं। पहले ये स्थान संविधान के लागू होने के 20 वर्ष तक के लिए सुरक्षित रस्बे गये बाद में यह अवधि 10-10 वर्ष  के लिए चार बार अर्थात्‌ सन्‌ 2010 तक बढ़ा दी गयी। इस समय लोकसभा के 543 स्थानों में से 79 और राज्यों की विधान सभाओं के 4,047 स्थानों में से  557 स्थान अनुसूचित जातियों तथा 41 स्थान लोक सभा में एवं 527 स्थान विधान सभाओं में अनुसूचित जनजातियों के लिए सुरक्षित रखे गये हैं।

पंचायती राज संस्थाओं में भी इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गये हैं। इन सब व्यवस्थाओं के फलस्वरूप अनुसूचित जातियों में राजनीतिक चेतना निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। 

आर्थिक उन्नति हेतु प्रयास-

अनुसूचित जातियों के व्यक्तियों को आर्थिक उन्नति के अवसर प्रदान करने हेतु सरकार ने उन्हें विशेष सुविधा देने का प्रयास किया है। कृषि एवं उद्योगों के क्षेत्र में अस्पृश्यों को आगे बढ़ने का मौका दिया गया है।चौथी पंचवर्षीय योजना के अन्त तक इनमें से अधिकांश लोगों को भूमि बाँटी जा चुकी थी। इन लोगों को शोषण से बचाने के लिए इनके लिए सहकारी समितियों की व्यवस्था भी की गयी।

इन्हें कुटीर उद्योग-धन्धों में लगाने के लिए प्रशिक्षण, ऋण तथा अनुदान का पअ्बन्ध भी किया गया स्वर्गीय भूतपूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के 20-सूत्रीय कार्यक्रम के अन्तर्गत इन जातियों के ऋणग्रस्त व्यक्तियों को ऋण से मुक्त करने, भूमिहीनों में भूमि का वितरण करने तथा बन्धक श्रमिक प्रथा को समाप्त करने हेतु प्रयास किये गये।

जनवरी 1976 में सरकार द्वारा पारित बन्धक श्रमिक उन्मूलन कानून का विशेष लाभ अनुसूचित जातियों के लोगों को ही मिला है। सन्‌ 1978 में सरकार द्वाय इस उद्देश्य से एक उच्चाधिकार समिति का गठन भी किया गया है ;ताकि अस्पृश्य जातियों की आर्थिक स्थिति एवं नौकरी सम्बन्धी सुविधाओं के बारे में सही जानकारी मिल सकें। 

सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्य-

अनुसूचित जातियाँ के लोगों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने, अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार करने तथा उच्च जाति के लोगों के सम्पर्क में आने को प्रोत्साहित करने कें लिए सरकारी नौकरियों में स्थान [सुरक्षित रखे गये हैं। खुली प्रतियोगिता द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर की जाने वाली नियुक्तियों में 15 प्रतिशत तथा अन्य प्रकार से की जाने वाली नियुक्तियों में 16.⅔ प्रतिशत स्थान अनुसूचित जातियों के लिए सुरक्षित होते हैं।

तीसरी और चौथी श्रेणियों में सीधी नियुक्ति के लिए जिनमें सामान्य रूप से स्थानीय अथवा क्षेत्रीय उम्मीदवार आते हैं, राज्यों तथा केन्द्र शासित क्षेत्रों की अनुसूचित तथा आदिम जातियों की जनसंख्या के अनुपात में स्थान सुरक्षित किये जाते हैं। दूसरी, तीसरी तथा चौथी श्रेणियों की विभागीय परीक्षाओं के आधार पर तथा तीसरी एवं चौथी श्रेणी में चयन के आधार पर होने वाली पदोन्नति के सम्बन्ध में अनुसूचित जातियों तथा आदिम जातियों के लोगों के लिए क्रमश: 15 तथा 7.1/2प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे जाते हैं, बशर्तें इन श्रेणियों में सीधी भर्ती 50 प्रतिशत से अधिक न होती हो।

वरिष्ठता के आधार पर होने वाली पदोन्‍नतियों में भी 27 नवम्बर, 1972 से अनुसूचित जातियों के लिए स्थान : सुरक्षित रखने की व्यवस्था की गयी है। सरकारी नौकरी प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करने की दृष्टि से अनुसूचित जातियों के सदस्यों की आयु सीमा में विशेष छूट की व्यवस्था की गयी है। राज्य सरकारों के द्वारा भी इन लोगों के लिए नौकरियों में स्थान सुरक्षित रखने हेतु समय-समय पर अनेक नियम बनाये गये है। 

अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955-

अस्पृश्यता को समाप्त करने, इससे सम्बन्धित सभी आचरणों को रोकने और अस्पृश्यता बरतने वाले को दण्डित करने के उद्देश्य से जून 1955 से सारे देश में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 लागू किया गया। इस अधिनियम में 17 धाराओं के द्वारा अस्पृश्यों की सभी नियोंग्यताओं को समाप्त कर दिया गया। 1976 में इस अधिनियम में संशोधन कर इसका नाम नागरिक अधिकार संरक्षण कानून, 1976 कर दिया गया। इस अधिनियम में जो प्रावधान किये गये, उनमें प्रमुख हैं 

    1. अस्पृश्यता अपराध से दण्डित व्यक्ति लोकसभा एवं विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ सकेंगे। 
    2. अस्पृश्यता ज्ञातव्य अपराध है। 
    3. पहली बार अस्पृश्यता सम्बन्धी अपराध के लिए छ: माह से एक वर्ष तक की कैद और 100 रुपये से 500 रुपये तक का जुर्माना दुबारा अपराध करने पर छ: माह से एक वर्ष तक की कैद व 200 रु. से 500 रु. तक जुर्माना। तीसरी बार अपराध करने पर एक वर्ष से दो वर्ष की कैद एवं 1,000 रु. तक जुर्माना करने का प्रावधान है। 
    4. अस्पृश्यता का प्रचार करना भी अपराध है। 
    5. सामूहिक रूप से अस्पृश्यता बरतने पर सामूहिक जुर्माना करने का प्रावधान है। 
    6. कानून का उल्लंघन करने वालों को दण्डित करने हेतु विशेष अधिकारी एवं अदालत के गठन का प्रावधान है। 
    7. पूजा-स्थान पर अस्पृश्यता दण्डनीय है। 
    8. इस मामले में सरकारी कर्मचारी यदि उपेक्षा बरतता है तो वह भी दण्डनीय है। 

 

अनुसूचित जनजातियाँ:अनुसूचित जनजाति से आशंय –

अनुसूचित जनजातियाँ उन जनजातियों को कहा जाता है, जिनका नाम संविधान की अनुसूची में दिया गया है। भारत में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 2001 की जनगणना के अनुसार 8.43 करोड़ है। ये देश के पिछड़े और कमजोर वर्ग की श्रेणी में आती हैं। 

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