जैनमत के मूल सिद्धांत, jain mat ke mool sidhdhant, Fundamentals of Jainism, MP BOARD 2024

प्रस्तावना –

नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे जैनमत के मूल सिद्धांत  के बारे में पढ़ेंगे |

जैनमत के मूल सिद्धांत

वर्धमान महावीर ने जिन सिद्धांतों का प्रचार किया वही जैन धर्म के मूल सिद्धांत हैं जो निम्नलिखित हैं 

जैनमत में निवृत्ति का मार्ग- 

इसके अनुसार संसार में मनुष्य दुखों से पीड़ित है मानव जीवन में सुख शान्ति नहीं है। समस्त जीवन वासना और तृष्णाओं से भरा है, किन्तु उनकी संतुष्टि नहीं होती है इसके कारण मनुष्य के जीवन में दुखों का प्रवाह है। संसार की प्रमुख समस्या दुख और दुख का निरोध है। इसलिए संसार को त्यागकर भिक्षु बनकर इन्द्रिय निग्रह कर तपस्या द्वारा कैवल्य की प्राप्ति की जाये अतः जैन धर्म मूलतः निवृत्ति का मार्ग है। 

जैनमत में अनीश्वरवाद और सृष्टि की नित्यता-

जैन धर्म में ईश्वर को स्वीकार नहीं किया जाता है । सृष्टि को नित्य माना गया है और इसके संचालन के लिए ईश्वर जैसी किसी शक्ति की आवश्यकता नहीं मानी जाती है।

जैनमत में आत्मवादिता-

जैन धर्म में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार. किया गया है इसके अनुसार जीवन केवल मनुष्यों और पशुपक्षियों में ही नहीं बल्कि पेड़-पौधों, जल और पत्थरों में भी है। कण-कण में भी जीव का वास है विश्व में जीव तथा अजीव दो मूल पदार्थ हैं जीव का अर्थ आत्म है जो मनुष्य की अतिरिक्त प्राकृतिक वस्तुओं में भी है। महावीर स्वामी स्वतः आत्मा की अमर में यकीन रखते थे। 

जैनमत में कर्म और पुनर्जम-

महावीर के अनुसार आत्मा निर्भय सर्व दृष्ट, ज्ञान, साथन, आतदमय और क्रियाशील है आत्मा अपने कर्मों से जीवन मरण या पुनर्जन्म के चक्कर में पड़ जाती है अपनी साधना और तपस्या से ज्ञान प्रात करके वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो जाती है। 

जैनमत में निर्वाण-

पूर्वजमम के कर्म फलों से मुक्ति हो निर्वाण है तप, अनशन, व्रत आदि से पूर्वजन्मों के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं एवं नये कर्मों का निर्माण नहीं होता है कर्मों के विनाश से आत्मा जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाती है यही निर्वाण प्राप्त होता हैं

जैनमत में त्रिरत्न-

साधना व विनय के मार्ग में कैवल्य या मोक्ष की प्राप्ति के लिए महावीर ने तीन साधन बतलाये जिन्हें जैन धर्म में त्रिलल कहा जाता है। 

जैनमत में सम्यक ज्ञान-

इसका अर्थ है सच्चा और पूर्ण ज्ञान जो सर्वज्ञ तीर्थकारों के उपदेशों का ध्यानपूर्वक अध्ययन करके प्राप्त होता है। 

सम्यक दर्शन–

सम्यक दर्शन का अर्थ है तीर्थकरों पर पूर्ण विश्वास । किन्तु ज्ञान और श्रद्धा व्यर्थ है जब तक इनका उपप्रयोग जीवन में न हो। 

सम्यक चरित्र–

इन्द्रियों और उनके कर्मों पर नियन्त्रण, विषय वासनाओं के प्रति अनासक्ति रखते हुए नैतिक सदाचारमय जीवन व्यतीत करना ही सम्यक चरित्र है। 

पंच महाव्रत-

जैन धर्म के तेइ्सवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने चार व्रतों का उपदेश दिया था 1. अहिंसा, 2. सत्य, 3. अस्तेय, 4. अपरिग्रह | महावीर ने उसमें पाँचवाँ ब्रह्मचर्य त्रत को शामिल किया है। अस्तेय का अर्थ है चोरी नहीं करना। अपरिग्रह का अर्थ है आवश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करना। 

अहिंसा–

जैन धर्म में सर्वाधिक जोर अहिंसा पर दिया गया जिसके पालन के लिए त्याग कौ * आवश्यकता होती है जैन धर्म में जड़ और चेतन दोनों में जीव का अस्तित्व माना गया है इसलिए चलने, बोलने, खाने पीने, सभी कामों में, जीव को कष्ट न पहुँचे इसका ध्यान रखने की आवश्यकता पर बल दिया गया। महावीर के अहिंसा दर्शन में आत्मबोध का सरल मार्ग बताया गया है। प्राणिमात्र के प्रति मन, वचन, कर्म से सम्पूर्ण और दया का बर्ताव करना चाहिए। ह 

व्रत और तपस्या–

महावीर ने व्रत और तपस्या को कैवल्य ज्ञान और निर्वाण प्राप्ति का मार्ग बताया है। जैन धर्म में तपस्या के दो रूप बताये गये हैं। 1 ब्रह्म तपस्या, 2. अभ्यान्तर तपस्या पहले रूप में उपवास, अनशन, भिक्षाचार्य, रस-परित्याग, काया, क्लेश, संलनिता, शरीर सेवा शामिल है। दूसरे रूप में प्रायश्चित, विनय, सेवा स्वाध्याय, ध्यान और ब्यूत्सर्ग की गिनती है। 

देववाद और ब्राह्मणवाद का विरोध–

महावीर ने सत्य या वास्तविक सत्ता का पता लगाने में वेदों के प्रमाण को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने यज्ञों, आडम्बर और वैदिक कर्मकाण्डों का विरोध किया । ब्राह्मण की शर्वोपरिता की धारणा को भी उन्होंने अस्वीकार किया वर्ण व्यवस्था और ऊँच-नीच के भावना का उन्होंने विरोध किया। ब्राह्मणों के प्रमुख को उन्होंने धार्मिक महत्व से शून्य ठहराया। 

जाति-पाँति के भेद का विरोध–

महावीर जाति प्रथा के विरोधी थे वे वर्ण व्यवस्था के चारों वर्णों में किसी तरह का भेदभाव नहीं मानते थे। उनके मतानुसार जाति में नहीं अपितु कर्म से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शृद्र बनता है। उन्होंने जैन धर्म और निर्वाण का द्वार मनुष्य मात्र के लिए खोल दिया था। 

नैतिकता और सदाचार का धर्म

महावीर ने दैनिक जीवन में श्रेष्ठ नैतिक आचरण और सत्कर्म पर खूब बल दिया। उन्होंने वासनाओं के दमन, संयम और सदाचार पर जोर दिया उनके धर्म में सरलता, सादगी, पावनता और नैतिकता का आधिक्य था।

 

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