प्रस्तावना –
नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे आर्थिक सुधारों (नई आर्थिक नीति) के विपक्ष में तर्क के बारे में पढ़ेंगे |
आर्थिक सुधारों (नई आर्थिक नीति) के विपक्ष में तर्क
नई आर्थिक नीति या आर्थिक सुधारों के विरोध में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं
पूँजीवाद के फैलने का खतरा-
विशेषज्ञों की राय है कि आर्थिक नीति पूँजीवाद की घातक प्रवृत्तियों को जन्म देगी। यह देश के नागिरकों के लिये कष्टदायक हैं
नई आर्थिक नीति बुनियादी समस्याओं की उपेक्षा –
यद्यपि नई आर्थिक नीति से विश्व की अर्थव्यवस्था के साथ तालमेल बैठाने में सफलता मिली है तथापि भारतीय अर्थव्यवस्था की मूल समस्याओं – गरीबी, बेरोजगारी, निरक्षरता, आय तथा धन की विषमता, क्षेत्रीय असंतुलन आदि का हल करने में सफलता नहीं मिली है। इन बुनियादी की समस्याओं की उपेक्षा की गई है।
नई आर्थिक नीति निर्यात में वांछित वृद्धि नहीं-
आर्थिक उदारीकरण की नीति के फलस्वरूप निर्यात में बांछित वृद्धि नहीं होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। आज भी भारतीय माल की गुणवत्ता अन्य देशों की तुलना में निम्न स्तर की है तथा उत्पादन लागत ऊँची है। भारतीय पमराल के आयात पर विकसित देशों द्वारा आज भी संरक्षणवादी नीतियाँ अपनाई जा रही है।
नई आर्थिक नीति आर्थिक विषमता में वृद्धि की आशंका-
आर्थिक सुधारों का अधिकांश लाभ बड़े-बड़े उद्योगों या व्यवसायों को प्राप्त हो रहां है तथा लघुउद्योगों एवं छोटे-छोटे व्यवसायों को कोई विशेष लाभ नहीं मिल पा रहा है। इस प्रकार इस नीति से आर्थिक विषमता अधिक होने की आशंका बनी हुई है। ‘
नई आर्थिक नीति क्षेत्रीय असंतुलन की समस्या कायम है-
आर्थिक सुधारों की नीति क्षेत्रीय असंतुलन दूर करने में सफल नहीं होगी। विकसित क्षेत्रों में उद्योग लगाने के प्रतिबन्ध व नियमन समाप्त कर देने से अब पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगपति उद्योग स्थापित करने मैं आगे नहीं आ रहे हैं। वे तो वहाँ उद्योग लगाने में रुचि रखते हैं जहाँ आधारभूत सुविधाएँ है। इस प्रकार क्षेत्रीय असंतुलन की समस्या यथावत् बनी हुई हैं।
नई आर्थिक नीति निजीकरण के भयावह परिणाम-
आर्थिक विकास का इतिहास इस बात का साक्षी है कि आर्थिक मन्दी की विकट स्थिति में निजीकरण को प्रोत्साहन देने के कारण विकासशील देशों को गरीबी, बेरोजगारी आदि की भयंकर समस्या का सामना करना पड़ा है। निजीकरण अर्थव्यवस्था को संकट से नहीं उबार सकता।
नई आर्थिक नीति उपयुक्त तकनीक का विकास नहीं होना-
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपनी तकनीक अपनाती हैं। वे भारत की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उपयुक्त तकनीक नहीं अपनाती हैं। अतः भारत अपनी स्वयं की तकनीक विकसित नहीं कर पायेगा और उसे विदेशी तकनीक पर ही निर्भर रहना पड़ेगा।
नई आर्थिक नीति विदेशी मुद्रा में हेराफेरी-
बहुराष्ट्रीय निगम विभिन्न तरीकों से दुर्लभ विदेशी मुद्रा को लाभप्रद स्थानों पर एकत्रित करते जाते हैं जिससे इन देशों में कभी-कभी विदेशी मुद्रा संकट उत्पन्न हो जाता है। अर्थात् बहुराष्ट्रीय निगमों की नीति दुर्लभ विदेशी मुद्रा के रूप में सम्पत्ति अर्जित करने और सुलभ देशी मुद्रा के रूप में रूप में ऋण एकत्रित करने की होती है। इस प्रकार विदेशी मुद्रा संकट को और भी गम्भीर बना दिया जाता है। इससे अल्पविकसित देशों को नुकसान होता है, क्योंकि इन देशों की मुद्राएँ और अधिक कमजोर होती जाती है।
नई आर्थिक नीति विदेशी पूँजी का प्रभुत्व-
आर्थिक उदारीकरण से विदेशी पूँजी का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है जो एक स्वस्थ स्थिति का परिचायक नहीं है।
नई आर्थिक नीति विदेशी मुद्रा बाहर भेजना-
बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपनी तकनीक देने के बदले जो फीस, रॉयल्टी, क्षतिपूर्ति तथा व्यय लेती हैं, काफी अधिक होते हैं। साथ ही इन रकमों को जब भारत के बाहर भेजा जाता है तो विदेशी मुद्रा कोष पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
नई आर्थिक नीति अन्य हानियाँ-
उपर्युक्त बातों के साथ ही आर्थिक उदारीकरण से कई अन्य दोष भी उत्पन्न हुए है जैसे उपभोग संस्कृति का विकृत होना, निर्धनता में वृद्धि, बेरोजगारी में वृद्धि, असुरक्षा में वृद्धि, छोटे-छोटे साहसियों का अन्त होगा, महँगाई में वृद्धि होना तथा स्वदेशी आन्दोलन को धक्का लगना आदि।
नई आर्थिक नीति का निष्कर्ष-
उचित वैश्वीकरण की आवश्यकता नई आर्थिक नीति यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट के दलदल से बाहर निकालने में आंशिक रूप से सफल हुई है तथापि यह कोई रामबाण औषधि नहीं है।
आर्थिक विकास के परिप्रेक्ष्य में भारत की स्थिति अन्य देशों की तुलना में काफी भिन्न है। नये आर्थिक सुधारों की अनेक पेचीदगियाँ हैं। विकास की गति तेज करने के साथ-साथ हमारे सामने मुख्य मुद्दा सामाजिक न्याय की स्थापना का भी है, जिसकी नये कार्यक्रम में उपेक्षा की गई है। सामाजिक न्याय की लागत पर किया जाने वाला विकास सार्थक नहीं कहा जा सकता।
यह कहा जा रहा है कि आर्थिक सुधार सम्बन्धी कार्यक्रमों के रिमोट कन्ट्रोल का स्त्रिंच अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक के हाथों में दे दिया गया है, क्योंकि विदेशी मुद्रा के संकट को दूर करने के लिए हम उनके पास व्यग्र होकर याचक की भाँति पहुँचे थे। नये कार्यक्रम लागू करने में हम ने पर्याप्त सावधानी एवं दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया हैं।
विश्व के कोने-कोने से विदेशी निवेश को निमंत्रण दिया । इसका प्रत्युत्तर उत्साहजनक रहा, किन हमने इस बिन्दु पर गम्भीरतापूर्वक विचार नहीं किया कि विदेशी-निवेश की सही प्राथमिकताएँ क्या होगी चाहिए और यह किस दिशा में प्रवाहित होना चाहिए। यदि भारतीय अर्थव्यवस्था को किसी विदेशी निवेश की सर्वाधिक जरूरत है तो वह अधोसंरचनात्मक क्षेत्रों में प्रवाहित होना चाहिए।
इन क्षेत्रों को आज डॉलर तथा पौण्ड की अधिक जरूरत है। “कोका कोला”” जैसे शीतल पेय या अन्य विलासिता की उपभोक्ता वस्तुओं के लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को भारत में बुलाने का क्या औचित्य है ? क्या भारत की अधिकांश जनता की यह आधारभूत आवश्यकता है ? नहीं। भारत की ग्रामीण जनता को शीतल पेय के बजाय शुद्ध पानी की अधिक आवश्यकता है।
हमारे देश में श्रमिकों का बहुमूल्य है। श्रम शक्ति का उपयोग करने के लिए पूँजीगत माल का उत्पादन बढ़ाना तथा आधारभूत संरचना सुदृढ़ बनाना प्रमुख आवश्यकता है। ऐसी दशा में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को उपभोक्ता सामान के उत्पादन हेतु निमंत्रित करना हास्थास्पद प्रतीत होता है। लगता है, विदेशी कम्पनियों को भारत में धन लगाने हेतु प्रोत्साहित करने का निर्णय करते समय हमने ठीक से होम वर्क नहीं किया।
दूसरा प्रश्न यह उठता है कि क्या ये कम्पनियाँ भारत जैसे पिछड़े देश को अपनी टेकनॉलाजी और | उत्पादन दक्षता प्रदान करेगी ? कदापि नहीं। उनका पदार्पण तो यहाँ के भावी विशाल उपभोक्ता बाजार का अधिक से अधिक लाभ उठाने के लिए हो रहा है। वे भारत के 30 करोड़ मध्यम और उच्च मध्यम बर्ग के उपभोक्ताओं को अपने जाल में फैंसाने के लिए उद्यत हैं। भारत के नवोदित मध्यम परिवारों की क्रयशक्ति का पूरा-पूरा शोषण होगा। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का प्रवेश एक ऐसी महामारी के समान है जो अनेक रोगों को जन्म देगा।
अविवेकपूर्ण तथा प्राथमिकता विहीन उदारीकरण से देश के कई मूलभूत उद्योगों को आघात पहुँचेगा | बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा निर्मित उपभोक्ता सामान से देश के मुट्ठी भर धनाढय वर्ग के लोग भले ही लाभान्वित हो जाए, इससे बहुसंख्यक लोगों के हितों की रक्षा की उपेक्षा नहीं की जा सकती। हमें यह भली-भाँति सुनिश्चित करना होगा कि हमें राष्ट्र के उच्च वर्ग के. लिए उदारीकरण की नीति चाहिये अथवा हम सर्वमान्य के हितों के लिए इसे अपनाना चाहते हैं।
यदि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के आगमम से होने वाली आर्थिक सुख-समृद्धि का लाभ केवल मुट्ठी भर लोगों तथा कुछ ही उद्योगों को नि प्राप्त होता है तो इससे कदापि सामाजिक न्याय नहीं होगा। उदारीकरण की सार्थकता इस बात पर निर्भर करेगी कि विदेशी निवेशों को वांछित क्षेत्रों में देश के सर्वाधिक हित में प्रवाहित करने की प्रभावपूर्ण नीति अपनाई जाए। उदारीकरण के द्वार जब हमने खोले हैं, तो प्रवेश करने वाले की नेकनीयता का परीक्षण भी कर लेना चाहिए। |
अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ की रिपोर्ट में कहा गया है कि ”हमारी मुख्य चिन्ता यह है कि वैश्वीकरण से सभी देशों को लाभ प्राप्त होना चाहिये और सारी दुनिया के सभी लोगों के कल्याण में वृद्धि होनी चाहिये। अर्थात् इससे गरीब देशों की आर्थिक वृद्धि की दर से उन्नति होनी चाहिये और विश्व-निर्धनता कम होनी चाहिये न कि असमानताएँ बढ़नी चाहिये और न ही देशों के भीतर समाजार्थिक सुरक्षा को क्षति पहुँचनी चाहिये।”
इस दृष्टि से विश्व को अधिक मानवीय बैश्वीकरण की ओर बढ़ना चाहिये। यह एक वांछनीय दृष्टि है। विश्व में बे संसाधन उपलब्ध है जिनके द्वारा गरीबी, बीमारी और शिक्षा की सबसे अधिक गम्भीर समस्याओं का समाधान किया जा प्कता है | ‘’महात्मा गाँधी ने बड़े सरल शब्दों में व्यक्त किया था कि “विश्व में हर व्यक्ति की जरूरत के लिये पर्याप्त साधन मौजूद हैं, परन्तु हर व्यक्ति के लालच के लिये साधन नहीं जुटाये जा सकते |’’
बस्तुत: वैश्बीकरण ने विश्व के गरीब वर्ग के हितों के लिये कोई कार्य नहीं किया। इसके परिणाम स्वरूप विभिन्न देशों में पारस्परिक असमानताएँ हैं तथा देशों के भीतर भी इसमें वृद्धि हुई है। दोष वैश्वीकरण में नहीं है, परन्तु उस ढंग में है जिससे इसकी व्यवस्था की गई है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघ का यह कथन सही है कि, “अर्थव्यवस्था अधिकाधिक वैश्वीकृत बन रही है जबकि सामाजिक और राजनैतिक संस्थान मोटे तौर पर स्थानीय, राष्ट्रीय या क्षेत्रीय ही रहे हैं।’”
विश्व व्यापार के नियम अधिकतर प्रमृद्ध व शक्तिशाली देशों के पक्ष में हैं और वे प्राय: या तो गरीब अथवा कमजोर देशों के हितों की अनदेखी कर रहे हैं या उनके विरुद्ध कार्य कर रहे हैं। मुख्यतः उन अनिवार्य लक्ष्यों के बारे में विश्व स्तर पर एक विस्तृत सहमति प्राप्त हो जिनमें मानवीय अधिकारों, बैधानिक शासन और सामाजिक न्याय के प्रति आदर हो।
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