प्रस्तावना –
नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे राजनीति विज्ञान का क्षेत्र। राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन। विज्ञान क्या है? के वारे में बात करेंगे |
राजनीति विज्ञान का क्षेत्र
राजनीति विज्ञान का क्षेत्र अध्ययन का बहुत व्यापक है और इसका निर्धारण भी बहुत कठिन है क्योंकि व्यक्ति और समाज का ऐसा शायद ही कोई पक्ष हो जो राजनीतिक इकाई से न जुड़ा हो। राजनीति विज्ञान की परिभाषा की भाँति ही राजनीति विज्ञान के क्षेत्र के संदर्भ में भी मूलतः दो प्रकार के दृष्टिकोण पाए जाते हैं |
परम्परावादी दृष्टिकोण तथा आधुनिक या व्यवहारवादी दृष्टिकोण । परम्परावादी दृष्टिकोण के अंतर्गत गार्नर, गेटिल, गिलक्राइस्ट, ब्लंश्ली आदि के दृष्टिकोणों को सम्मिलित किया जा सकता है। ये सभी विद्वान राजनीति विज्ञान के क्षेत्र के अंतर्गत राज्य, सरकार तथा इसी प्रकार की अन्य राजनीतिक संस्थाओं के औपचारिक अध्ययन को रखते हैं। गिलक्राइस्ट और फ्रेडरिक पोलक ने राजनीतिक विज्ञान के दो विभाजन किये हैं सैद्धान्तिक और व्यावहारिक।
राजनीति विज्ञान का क्षेत्र पर गिलक्राइस्ट का विचार है –
कि सैद्धान्तिक राजनीति के अंतर्गत राज्य की आधारभूत समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। इसके अंतर्गत इस बात का अध्ययन ,सम्मिलित नहीं है कि कोई राज्य अपने लक्ष्यों की प्राप्त के लिए किन साधनों का प्रयोग करता है। इसके विपरीत व्यावहारिक राजनीति के अंतर्गत सरकार के वास्तविक कार्य संचालन तथा राजनीतिक जीवन की विभिन्न संस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।
राजनीति विज्ञान का क्षेत्र पर सर फ्रेडरिक पोलक के अनुसार –
सैद्धान्तिक राजनीति के अंतर्गत राज्य, सरकार, विधि निर्माण तथा राज्य का अध्ययन किया जाता है, जबकि व्यावहारिक राजनीति के अंतर्गत सरकारों के विभिन्न रूप अथवा प्रकार, सरकारों के संचालन तथा प्रशासन, कूटनीति, युद्ध, शांति तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार एवं समस्याओं आदि का अध्ययन किया जाता है।
व्यवहारवादी दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान के अध्ययन क्षेत्र को राज्य और सरकार के अध्ययन तक सीमित नहीं मानता वरन् मनुष्य के व्यवहार का समग्रता में अध्ययन करता है। व्यवहारवादियों का मत है कि राजनीति विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र मनुष्य के राजनीतिक व्यवहार तक सीमित नहीं है वह व्यापक है क्योंकि मनुष्य के राजनीतिक क्रियाकलाप, उसके जीवन के सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक आदि सभी क्रिया-कलापों से प्रभावित होते हैं और उन्हें प्रभावित भी करते हैं।
राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में निम्नलिखित अध्ययन सम्मिलित हैं
राजनीति विज्ञान का क्षेत्र पर मनुष्य का अध्ययन –
राजनीति विज्ञान मूलतः मनुष्य के अध्ययन से सम्बन्धित है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और वह राज्य से किंचित मात्र भी अपने को पृथक् नहीं रख सकता। इसी कारण अरस्तू की यह मान्यता है कि राज्य या समाज में ही रहकर मनुष्य आत्मनिर्भर हो सकता है। मनुष्य राज्य की गतिशीलता का आधार है।
राज्य की समस्त गतिविधियाँ मनुष्य के इर्द-गिर्द केन्द्रित होती हैं। मानव के विकास की प्रत्येक आवश्यकता राज्य पूरी करता है, उसे अधिकार देता है तथा उसे स्वतंत्रता का सुख प्रदान करता है। परम्परावादी दृष्टिकोण मनुष्य के राजनीतिक जीवन को राजनीति विज्ञान के विषय-क्षेत्र में रखता है, जबकि व्यवहारवादी दृष्टिकोण मनुष्य के समग्र जीवन को इसमें सम्मिलित करता है।
राजनीति विज्ञान का क्षेत्र पर राज्य के अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का अध्ययन-
राज्य राजनीति विज्ञान का केन्द्रीय विषय है, सरकार इसको मूर्तरूप देती है। राज्य की आवश्यकता इसलिए है क्योंकि इसके माध्यम से ही जीवन की आवश्यकताएँ पूरी की जा सकती हैं। परंतु राजनीतिक जीवन का उद्देश्य मात्र दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं है। जैसा कि अरस्तू ने लिखा है,’राज्य का जन्म दैनिक जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए होता है, परंतु इसका अस्तित्व एक अच्छे जीवन के लिए कायम रहता है।’ इस रूप में राज्य मानव के लिए अपरिहार्य संस्था है।
राजनीति विज्ञान में सर्वप्रथम राज्य के अतीत का अध्ययन किया जाता है। इससे हमें राज्य एवं उसकी विभिन्न संस्थाओं के वर्तमान स्वरूप को समझने तथा भविष्य में उनके सुधार एवं विकास का आधार निर्मित कर सकने में सहायता मिलती है।
राजनीति विज्ञान राज्य के वर्तमान स्वरूप का भी अध्ययन करता है। राजनीति विज्ञान के क्षेत्र का यह अंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति राज्य से अनिवार्यत: जुड़ा हुआ है। वर्तमान के सन्दर्भ में राज्य के अध्ययन के अंतर्गत हम राजनीतिक संस्थाओं का करते हैं, उसी रूप में जिस रूप में वे क्रियाशील हैं। हम व्यावहारिक निष्कर्षों के आधार पर राज्य के कार्यों एवं उसकी प्रकृति का अध्ययन करते हैं। ]
इसके अतिरिक्त हम राजनीतिक दलों एवं हित-समूहों, स्वतंत्रता एवं समानता की अवधारणाओं एवं इनके मध्य सम्बन्धों सत्ता तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता, अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के एक सदस्य के रूप में राज्य के विकास आदि का भी अध्ययन करते हैं। इतना ही नहीं राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में हम यह भी अध्ययन करते हैं कि राज्य आने वाले समय में कैसा हो सकता है अथवा अपने आदर्श रूप में उसे कैसा होना चाहिए।
सरकार का अध्ययन-
राज्य एक अमूर्त संस्था है जिसकी इच्छा को मूर्त रूप सरकार के माध्यम से प्राप्त होता है। राज्य सरकार के माध्यम से कार्य करता है। इसीलिए सरकार को राज्य का अनिवार्य तत्व माना गया है। सरकार के माध्यम से ही सामान्य नीतियों का निर्धारण होता है, सामान्य गतिविधियों का संचालन होता है और सामान्य हितों का सम्बर्द्धन होता है। वर्तमान समय में सरकार के तीन अंग-कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका माने जाते हैं । इनके संगठन, कार्यप्रणाली, शक्तियों तथा परस्परिक सम्बन्धों का अध्ययन भी राजनीति विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है। राज्य के संविधान का भी अध्ययन किया जाता है।
राजनीति सिद्धान्त तथा विचारधाराओं का अध्ययन-
राज्य, व्यक्ति तथा राज्य और व्यक्ति के मध्य सम्बन्धों का प्रश्न प्रांरभ से ही राजनीतिक चिंतकों तथा विचारकों के मध्य चिंतन का विषय रहा है । इनके अध्ययन के लिए विचारकों ने अनेक अवधारणाएँ, सिद्धांत तथा विचारधाराएँ निर्मित की हैं ।
स्वतंत्रता, समानता, विधि, अधिकार, सम्पत्ति, राजनीतिक आज्ञाकारिता, सत्ता और प्राधिकार, क्रान्ति इसी प्रकार की अवधारणाएँ हैं। इनके अतिरिक्त राज्य और व्यक्ति के सम्बन्धों पर विचार करने के लिए अनेक प्रकार की अवधारणाएँ विकसित की हैं, यथा व्यक्तिवाद, आदर्शवाद, समाजवाद, साम्यवाद, अराजकतावाद आदि।
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का अध्ययन-
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में राज्यों की भूमिका पुरानी है। राजनीति विज्ञान के अंतर्गत राष्ट्रों के मध्य निर्मित और विकसित, पारस्परिक संबंधों का अध्ययन किया जाता है। राष्ट्रों के मध्य व्यवहार को नियमित करने के लिए कुछ विधियाँ हैं जिन्हें अन्तर्रष्ट्रीय विधि कहते हैं। राजनीति विज्ञान में अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध, अन्तर्राष्ट्रीय विधि तथा अन्तर्राष्ट्रीय संगठन आदि का अध्ययन भी किया जाता है।
सत्ता का अध्ययन –
राजनीति विज्ञान में सत्ता के अध्ययन का समावेश व्यवहारवादियों की देन है। लॉसवेल, कैप्लान, मॉर्गेन्यो तथा रसेल जैसे आधुनिक राजनीति वैज्ञानिकों ने इसी दृष्टिकोण से राज्य का अध्ययन किया है , कैप्लान ने राजनीति की परिभाषा-‘ सत्ता को रूप देने और उसमें भागीदारी के अध्ययन करने ‘ के तौर पर की है। इस रूप में राजनीतिक गतिविधि तथा राजनीतिक प्रक्रिया के अध्ययन को भी राजनीति विज्ञान के क्षेत्र में सम्मिलित माना जाता है।
राजनीतिक विज्ञान का स्वरूप –
राजनीतिक विज्ञान की प्रकृति तथा इसके स्वरूप को लेकर विचारकों में मतभेद रहा है कुछ विचारक इसे कला मानते हैं तथा कुछ विचारक इसे विज्ञान मानते हैं। कहा जाता है कि बिलियम गॉडविन तथा मेरी बोलस्टोनक्राफ्ट ने इसे सबसे पहले राजनीति विज्ञान कहा था।
तब से यह शब्द काफी लोकप्रिय है। इसके विपरीत बकल तथा मैटलैण्ड ऐसे विचारक हैं जो इसे विज्ञान मानने को तैयार नहीं हैं। बकल का प्रसिद्ध कथन है कि ‘ज्ञान के वर्तमान धरातल पर राजनीति का विज्ञान होना तो दूर वह कलाओं में भी सबसे पिछड़ी कला है।’ इसी प्रकार मैटलैण्ड का कथन है कि “जब मैं परीक्षा प्रश्नों के एक अच्छे समूह को देखता हूँ तो मुझे प्रश्नों पर नहीं, बल्कि प्रश्न-पत्र के शीर्षक पर दुःख होता है।’
विज्ञान क्या है?
राजनीति विज्ञान, विज्ञान है अथवा नहीं, इस बात को समझने के पूर्व यह जानना आवश्यक है कि ‘विज्ञान’ क्या है? अमरीकी नॉलेज शब्दकोश के अनुसार, “विज्ञान, ज्ञान अथवा अध्ययन की वह शाखा है जिसका सम्बन्ध विधिवत् व्यवस्थित तथ्यों अथवा सत्यों के संग्रह से है और जो सामान्य नियमों के संचालन को प्रदर्शित करता है।’
गार्नर के अनुसार,
“विज्ञान मूल रूप से किसी विशेष विषय के सम्बन्ध में ज्ञान के उस अमित भण्डार का नाम है जिसकी उपलब्धि व्यवस्थित पर्यवेक्षण, अनुभव अथवा अध्ययन द्वारा हो तथा जिससे उपलब्ध तथ्यों को समन्वित, व्यवस्थित तथा वर्गीकृत किया गया हो।‘
विद्वान विज्ञान की तीन विशेषताएँ बतलाते हैं –
- विज्ञान तथ्यों को एकत्रित करता है और उनका ठीक-ठीक वर्णन करके उन्हें व्यवस्थित रूप से वर्गीकृत करता है।
- उन स्थष्ट तथ्यों में कार्यकारण सम्बन्ध स्थापित किया जाता है।
- इस कार्यकारण संबंध की पृष्ठ भूमि में भविष्य में होने वाली घटनाओं पर प्रकाश डाला जाता है।
स्पष्ट है प्राकृतिक जगत में तथ्यों को एकत्रित करना आसान है पर सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में उपर्युक्तानुसार तथ्यों को एकत्रित करना आसान नहीं है। इसी प्रकार प्राकृतिक जगत में नियम निर्मित करना आसान है पर सामाजिक जगत में वैसे नियम नहीं बनाए जा सकते क्योंकि समाज गत्यात्मक है। सामाजिक क्षेत्र में कार्यकारण सम्बन्ध स्थापित करना कठिन है।
अत: विचारक राजनीति विज्ञान को विज्ञान नहीं मानते। इस सम्बन्ध में उनके मुख्य तर्क निम्नलिखित हैं। सर्वप्रथम समस्या विज्ञान के समान समस्त तथ्यों को एकत्रित करने की है। सरसरे तौर से देखने पर यह कार्य सरल प्रतीत होता है पर यह इतना सरल है नहीं। प्राकृतिक जगत में सम्बन्धित तथ्यों को एकत्र करना कठिन नहीं है, परंतु सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र के तथ्यों को एकत्रित करना कठिन है। कारण, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र निरंतर परिवर्तनशील है। इस कारण राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में कार्यकारण सम्बन्ध स्थापित करना अंत्यन्त कठिन है। राजनीतिक क्षेत्र में एक ही कारण से एक से अधिक परिणाम उपस्थित हो सकते हैं।
अतः राजनीतिक विज्ञान को विज्ञान की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। कॉम्टे ने निम्नलिखित कारणों से इसे विज्ञान मानने से इंकार किया है –
- राजनीति विज्ञान में सिद्धान्तों, पद्धतियों तथा निष्कर्षों के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है,
- इसके विकास में सातत्यता नहीं पाई जाती, तथा
- इसमें भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
राजनीति विज्ञान ‘विज्ञान’ नहीं है:मुख्य तर्क
(Political Science is not a Science:Main Arguments)
कई विद्वान राजनीति विज्ञान को विज्ञान नहीं मानते। बकल ने तो यहाँ तक कहा है, ‘राज्य की वर्तमान स्थिति में राजनीति का विज्ञान होना तो दूर यह कलाओं में भी सबसे पिछड़ी हुई कला है।’ लार्ड ब्राइस का मत है, ‘कितने ही व्यापक स्तर पर तथा कितनी ही सावधानी के साथ सामग्री क्यों न एकत्रित की जाए, उसका स्वरूप यह असम्भव बना देता है
राजनीति कभी उस अर्थ में विज्ञान बन सकेगी जिस अर्थ में अभियान्त्रिकी, रसायन विज्ञान अथवा वनस्पति विज्ञान विज्ञान हैं।’ जॉर्ज कैटलिन का विचार है कि ‘किसी स्वीकार्य अर्थ में राजनीति विज्ञान जैसी कोई वस्तु नहीं है।’ एफ. डब्ल्यू. मेटलैण्ड ने तो व्यंग्यात्मक लहजे में लिखा है, ‘जब मैं परीक्षा प्रश्नों के एक अच्छे समूह को देखता हूँ
जिसका शीर्षक राजनीति विज्ञान होता है तो मुझे प्रश्नों पर नहीं वरन् शीर्षक पर अफसोस होता है।’ कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में सन् 1946 में अपने उद्घाटन भाषण में डी.डब्ल्यू.बोगन ने टिप्पणी करते हुए कहा, ‘…. इस बात में संदेह है कि क्या राजनीति विज्ञान जैसी किसी शैक्षणिक ज्ञान शाखा का अस्तित्व है?’
राजनीति विज्ञान को विज्ञान न मानने वाले विद्वानों के मुख्य तर्क निम्नांकित हैं
निश्चित पद्धति का अभाव-
राजनीति विज्ञान में निश्चित पद्धति का अभाव है। चार्ल्स ए.बीयर्ड का तर्क है, ‘राजनीति के प्रत्येक वर्णन में अस्पष्टता रहती है और रहनी भी चाहिए, क्योंकि इसके विद्यार्थी मानव कार्यों का अध्ययन करते समय उस मानसिक दशा में नहीं रहते जिस प्रकार कि भौतिक शास्त्र का विद्यार्थी भौतिक शास्त्र की समस्याओं का अध्ययन करते समय रहता है।’ इसका कारण यह है कि इस विषय की कोई निश्चित और सर्वमान्य पद्धति नहीं है। राजनीति विज्ञान के अध्ययन के लिए दार्शनिक, ऐतिहासिक, तुलनात्मक, पर्यवेक्षणात्मक आदि पद्धतियों का प्रयोग किया जाता हैं।
निश्चित तथ्यों का अभाव-
राजनीति विज्ञान में निश्चित तथ्यों का अभाव है। प्रत्येक विज्ञान सुनिश्चित तथ्यों पर आधारित होता है। उदाहरण के लिए, गणित के सभी अध्येता यह मानते हैं कि दो और दो को जोड़ने पर चार होता है। इसी प्रकार प्रत्येक विज्ञान की अपनी निजी शब्दावली तथा सुनिश्चित एवं मानक परिभाषाएँ होती हैं। राजनीति विज्ञान में ऐसा कुछ भी नहीं है।
कोई राज्य को प्राकृतिक मानता है, तो कोई इसे मानव निर्मित, कोई इसे मानव कल्याण का साधन मानता है तो कोई इसे शक्तिशाली वर्ग के हाथों में कमजोर वर्ग के शोषण का एक संयंत्र मानता है। स्वतंत्रता, समानता, अधिकार, न्याय, लोकतंत्र, विधि आदि अवधारणाओं के संदर्भ में भी यही स्थिति है। ऐसी स्थिति में राजनीति विज्ञान के प्रमुख प्रतिपाद्य विषयों के बारे में सर्वमान्य तथ्यों का एकत्रीकरण असम्भव है।
कार्यकारण सम्बन्ध का अभाव-
विज्ञान में कार्य और कारण के मध्य अनिवार्य और सर्वभौम सम्बन्ध पाया जाता है। उदाहरण के लिए न्यूटन का यह नियम है कि,यदि वस्तु पर बाह्य दबाव डाला जाए तो उसकी स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। राजनीति विज्ञान में इस प्रकार के कार्यकारण सम्बन्ध का सर्वथा अभाव पाया जाता है। किसी राज्य में क्रांति या अराजकता किस कारण से होती है इस बारे में राजनीति विज्ञान निश्चित रूप से कुछ बताने में असमर्थ है।
राजनीतिक क्षेत्र में एक जैसे कारणों के होते हुए भी परिणाम एक जैसे नहीं होते हैं। किसी राज्य में सरकार की किंचित शोषणकारी नीतियों के परिणामस्वरूप ही विद्रोह अथवा क्रांति की घटना हो सकती है, जबकि दूसरे राज्य में अत्यधिक निरंकुशतापूर्ण शासन की परिणति भी क्रांति की नहीं बन पाती। जिन दशाओं में एक राज्य में लोकतंत्र सफल है, यह आवश्यक नहीं कि उन्हीं दशाओं में अन्य राज्य में लोकतंत्र सफल रहेगा।
जे.सी. जौहरी ने लिखा है, “राजनीतिक परिवेश की जटिलता अपना प्रभाव डालती है। आदतें, भाबनाएँ, मनोवृत्तियाँ तथा लोगों के स्वभाव स्थान-स्थान पर भिन्न-भिन्न होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप हम उनके व्यवहार के कठोर नियम नहीं बना सकते। उदाहरण के लिए, मतदान संबंधी व्यवहार का निर्धारण धर्म, जाति, समुदाय, सामाजिक व आर्थिक स्थितियों जैसे कई तत्वों से होता है। इसी कारण संयुक्त राज्य अमरीका जैसे देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था का संचालन भारत जैसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के संचालन से भिन्न है।प
परीक्षण एवं प्रयोग का अभाव-
राजनीति विज्ञान को विज्ञान न मानने वाले विद्वानों का सबसे प्रमुख तर्क यह है कि राजनीति विज्ञान के तथ्यों को परीक्षण और प्रयोग की कसौटी पर नहीं रखा जा सकता। किसी चिंतक के विचारों या सिद्धांतों का परीक्षण करने के लिए न तो कोई उपकरण या मशीन है और न ही कोई प्रयोगशाला है।
विज्ञान से यह संभव है कि गुरुत्वाकर्षण के नियम ( Low of Gravitation ) का परीक्षण किया जा सकता है अथवा दो रासायनिक अवयवों को मिलाने से तीसरा अवयव बनता है कि नहीं, इसका परीक्षण किया जा सकता है, परंतु इस प्रकार का कोई परीक्षण राजनीति विज्ञान में सम्भव नहीं है। बाइस ने लिखा है, ‘ भौतिक विज्ञान में एक निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बार-बार प्रयोग किया जा सकता है, लेकिन राजनीति में एक प्रयोग बार-बार नहीं दुहराया जा सकता क्योंकि एक ही प्रकार की स्थिति बार-बार नहीं पैदा की जा सकती।’
भविष्यवाणी की क्षमता का अभाव-
विज्ञान में भविष्यवाणियाँ करना आसान है क्योंकि विज्ञान कुछ निश्चित नियमों तथा तथ्यों पर आधारित होता है जो सार्वभौमिक होते हैं। परंतु राजनीति विज्ञान में इस प्रकार की निश्चित भविष्यवाणियाँ कर सकता असम्भव है। राजनीतिक यह भविष्यवाणी करने में होता है कि कोई सरकार कब तक चलेगी? या कोई सरकार किस प्रश्न पर गिर जाएगी।
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