प्रस्तावना –
नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे आर्थिक संवृद्धि एवं विकास,अर्थ,परिभाषा,शर्तें,सूचक,प्रकार, MP BOARD NET,Economic, Class11th,ECONOMIC GROWTH DEVELOPMENT के वारे में बात करेंगे |
“आर्थिक संवृद्धि एवं विकास”
“आर्थिक विकास किसी अर्थव्यवस्था में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया को बताता है। इस प्रक्रिया का केद्रीय उद्देश्य अर्थव्यवस्था के लिए प्रति व्यक्ति वास्तविक आय का ऊँचा और बढ़ता हुआ स्तर प्राप्त करना होता है। –क्राउज
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास-अर्थ-परिभाषा
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास-अर्थ-परिभाषा सामान्य तौर पर “आर्थिक वृद्धि व आर्थिक विकास में कोई अन्तर नहीं माना जाता है। दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं, लेकिन शुम्पीटर एल्फर्ड बोन , श्रीमती उर्सला हिक्स तथा डॉ. ब्राइट सिंह आदि विद्वान इन दोनों शब्द में अन्तर करते हैं। विभिन्न विद्वानों ने “आर्थिक संवृद्धि’ को निम्न प्रकार परिभाषित किया है।
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास सी.पी.किण्डेल बर्जर–
“आर्थिक संवृद्धि से आशय अधिक उत्पादन से है जबकि आर्थिक विकास का आशय अधिक उत्पादन के साथ-साथ उन परिवर्तनों से है जो तकनीकी एवं संस्थागत व्यवस्था में होते हैं जिनके द्वारा उत्पादन व वितरण किया जाता है।” ॥
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास शुम्पीटर–
आर्थिक संवृद्धि से अर्थ परम्परागत, स्वचालित एवं नियमित विकास से है जबकि आर्थिक विकास से अर्थ नियोजित एवं नवीन तकनीकों के आधार पर होने वाले विकास से है।””
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास प्रो. रोस्टोव–
“आर्थिक संवृद्धि एक ओर पूँजी व कार्यशील शक्ति में वृद्धि की दरों के बीच तथा दूसरी ओर जनसंख्या वृद्धि की दर के बीच ऐसा संबंध है जिससे प्रतिव्यक्ति उत्पादन में वृद्धि होती है”
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास श्रीमती उर्सला हिक्स–
“आर्थिक संवृद्धि शब्द का प्रयोग आर्थिक दृष्टि से विकसित राष्ट्रों के सम्बन्ध में किया जाता है जहाँ पर साधन ज्ञात और विकसित हैं जबकि विकास” शब्द का ग्रयोग अविकसित देशों के सम्बन्ध में होना चाहिये जहाँ पर अब तक प्रयोग न किये गये साधनों का उपयोग व विकास की संभावना हो।
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास प्रो. मेडीसन–
“आय का बढ़ता हुआ स्तर धनी देशों में सामान्यतः आर्थिक वृद्धि कहलाता है और निर्धन देशों में यह आर्थिक विकास कहलाता है।””इस प्रकार आर्थिक संवृद्धि तभी संभव है जब राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय दीर्घकाल में निरन्तर नियमित रूप से बढ़ती जाय। अनियमित या अकस्मात् वृद्धि आर्थिक विकास कहलाएगी। आर्थिक संवृद्धि का सम्बन्ध विकसित देशों से होता है जबकि आर्थिक विकास का सम्बन्ध अल्पविकसित देशों से। आर्थिक संवृद्धि का सम्बन्ध उत्पादन से है जबकि आर्थिक विकास का सम्बन्ध अधिक उत्पादन नवीन तकनीक एवं संस्थागत सुधारों के समन्वय से है।
भारतीय आर्थिक चिन्तक Bhartiye aarthik chintak |
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास अर्थ परिभाषा-
- आर्थिक विकास से हमारा आशय उस प्रक्रिया से है जिसके फलस्वरूप देश के समस्त उत्पादनसाधनों का कुशलता पूर्बक विदोहन होता है, राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में सतत तथा दीर्घकालीन वृद्धि होती है और जनसामान्य के जीवन स्तर एवं सामान्य कल्याण का सूचकांक बढ़ता है। विभिन अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास को निम्न प्रकार परिभाषित किया है,
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास मेयर एवं बाल्डविन–
आर्थिक विकास एक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा किसी अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय में दीर्घकाल में वृद्धि होती है।”’
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास पॉल एल्बर्ट–
“किसी वेश के द्वारा अपनी वास्तविक आय को बढ़ाने के लिए सभी उत्पादक साधनों का कुशलतम प्रयोग करना आर्थिक विकास कहलाता है।
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास विलियमसन एवं बट्रिक की दृष्टि में–
“आर्थिक विकास का अर्थ उस प्रक्रिया ते है जिसमें किसी देश या क्षेत्र के निवासी उपलब्ध साधनों का प्रयोग करके ग्रति व्यक्ति वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन में निरन्तर वृद्धि करते हैं।””
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास क्राउज-
“आर्थिक विकास किसी अर्थ-व्यवस्था में आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया को बताता है। इस प्रक्रिया का केन्द्रीय उद्देश्य अ42-व्यवस्था के लिए प्रति व्यक्ति वास्तविक आय का ऊँचा और बढ़ता हुआ स्तर प्राप्त करना होता है।”
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास लीविस-
आर्थिक विकास थ्रति व्यक्ति उत्पादन की मात्रा में वृद्धि को बताता है। ग्रति व्यक्ति उत्पादन-वृद्धि एक ओर उपलब्ध ग्राकृतिक साधनों पर एवं दूसरी ओर मानवीय व्यवहार फ निर्भ है।
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास ब्राइट सिंह-
“आर्थिक विकास एक बहुमुखी धारणा है। इसके अंतर्गत केवल मौद्रिक आव में ही वृद्धि शामिल नहीं हैं, बल्कि वास्तविक आदतें, शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, अधिक आराम के साध-साथ उन समस्त सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थितियों में सुधार भी शामिल है जो एक पूर्ण और सुखी जीवन का “निर्माण करती हैं।”
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास ओकेन तथा रिचर्डसन-
“आर्थिक विकास से आशय वस्तुओं और सेवाओं को अधिक से अधिक मात्रा में उपलब्ध करने से है, जिससे कि जनसामान्य के भौतिक कल्याण में सतत व दीर्घकालीन उन्नति हो सके।”
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास ओवरसीज डेवलपमेंट कौंसिल ऑफ अमेरिका–
“आर्थिक विकास का अर्थ भौतिक जीवन गुणवत्ता सूचकांक से है। इस सूचकांक में तीन तर्त्तों को शामिल क्रिया गया है
- प्रत्याशित आयु
- बच्चों की मृत्यु-दर
- साक्षरता ।
जिस देश की प्रत्याशित आयु सबसे अधिक होती है उसे 100 अंक दिये गये हैं। इसी प्रकार मृत्युदर व साक्षरता के सम्बन्ध में भी अंक दिये गये हैं। जिस देश में प्रत्याशित आयु सबसे कम होती है उसे 1 अंक देते हैं। इस प्रकार प्रत्येक देश के तीनों सूचकांक रखकर औसत निकाल लेते हैं। यदि किसी देश के इस औसत सूचकांक में वृद्धि होती रहती है तो इसे आर्थिक विकास मानते हैं और यह मानते हैं कि भौतिक गुणों में वृद्धि हो रही है।
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट–
“विकास मानव की केवल भौतिक आवश्यकताओं से ही नहीं, बल्कि उसके जीवन की साम्राजिक दशाओं की उन्नति से भी सम्बन्धित होना चाहिए। अतः विकास में सामाजिक, सास्कृतिक, झंस्थागत तथा आर्थिक परिवर्तन भी शामिल है।इस प्रकार, कुछ विद्वान राष्ट्रीय आय में दीर्घकालीन एवं सतत वृद्धि को आर्थिक विकास का सूचक मानते हैं, कुछ विद्धान् प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि को आर्थिक विकास की प्रक्रिया मानते हैं तथा कुछहै |
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास सतत या स्थिर विकास की आवश्यक शर्तें-
सतत विकास की आवश्यक शर्तें निम्न प्रकार हैं-
- निरन्तर बढ़ता हुआ विनियोग- विकास की प्रक्रिया में बिनियोग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विनियोग से आय अर्जित होती है, अर्थव्यवस्था की उत्पादन क्षमता बढ़ती है, पूँजी बढ़ती है, उत्पादन की गति तेज होती है तथा वास्तविक आय में वृद्धि होती है।
- प्रगति के लिये जनाकांक्षा– यदि लोगों में प्रगति के लिये दृढ़ इच्छा हो तो आर्थिक विकास के पहिये निरन्तर चलते रहते हैं। यदि लोगों में उदासीनता या निष्क्रियता की वृत्ति हो तो आर्थिक विकास की गति धीमी रहेगी |
- श्रम की गतिशीलता– श्रम की गतिशीलता आर्थिक विकास को प्रोत्साहन देती है। गतिशीलता के अभाव का उत्पादन तथा आर्थिक विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
- बाजार की दशा का ज्ञान- बाजार की दशा का पूरा-पूरा ज्ञान होने पर ही उत्पादक सही मात्रा में वस्तुओं का उत्पादन तथा विक्रय कर सकता है। बाजार के पूर्ण ज्ञान के अभाव में या तो उत्पादन माँग से कम हो सकता है या अधिक । दोनों ही दशाओं में उत्पादक को लाभ कम होगा।
- पूँजी बाजार तथा मुद्रा बाजार का विकसित होना- जब पूँजी बाजार तथा मुद्रा बाजार विकसित होता है तो उत्पादों एवं कृषकों को सस्ती दर पर तथा समय पर पर्याप्त मात्रा में साख-सुविधा उपलब्ध हो जाती है। इससे उत्पादन में वृद्धि होती है जो आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है।
- सुदृढ़, कुशल तथा स्थायी सरकार– सुदृढ़, ईमानदार, कुशल तथा स्थायी सरकार की दशा में आर्थिक विकास तेजी से होता है क्योंकि आर्थिक बिकास की योजनाएँ आसानी से लागू की जा सकती है तथा विकास के कार्यक्रम निर्बाध गति से चलते रहते हैं। स्थायी सरकार विदेशी आक्रमणों से रक्षा करने में भी सक्षम रहती है। अकुशल तथा अस्थायी सरकार की दशा में उपयुक्त नीतियाँ निर्मित और लागू नहीं हो पाती है तथा आन्तरिक कानून व व्यवस्था गड़बड़ा जाती है।
- सामाजिक बाधाएँ नहीं होना- सामाजिक बाधाओं तथा विवशवाओं के कारण आर्थिक विकास वांछित गति से नहीं हो पाता । संयुक्त परिवार प्रणाली, जाति भ्रथा, अंधविश्वास आदि आर्थिक विकास में रुकावट पैदा करते हैं। अतः इन्हें समाप्त करने या सुधार करने पर विकास की गति तेज की जा सकती है।
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास के सूचक-
आर्थिक विकास के सूचक का अर्थ-
आर्थिक विकास के सूचक का आशय उन सूचकांकों तथा रीतियों से है जो किसी देश में होने वाले विकास की माप करते हैं। दूसरे शब्दों में आर्थिक बिकास को मापने के आधार को हम आर्थिक विकास के सूचक कह सकते हैं इन सूचकों से यह पता लगाया जा सकता है कि किसी देश का आर्थिक बिकास हो रहा है या नहीं और यदि हो रहा है तो किस गति से हो रहा है।
आर्थिक संवृद्धि एवं विकास सूचक या माप के प्रकार-
आर्थिक विकास के सूचकों को अर्थशास्त्रियों ने निम्न चार श्रेणियों में बाँटा है
- राष्ट्रीय आय- राष्ट्रीय आथ किसी देश के निवासियों द्वारा उत्पन्न (देश में या विदेश में) समस्त वस्तुओं तथा सेबाओं के मौदिक मूल्य को मापती है। यह मूल्य बाजार कीमतों पर या स्थिर कीमतों पर (आधार वर्ष की कीमतों) से मापा जा सकता है। बाजार मूल्य पर राष्ट्रीय आय घट या बढ़ सकती है भले ही वस्तुओं व् सेबाओं का उत्पादन यधावत् रहता हो।
अतः यह आर्थिक विकास का सही सूचक नहीं माना जा सकता। यदि राष्ट्रीय आय की गणना किसी आधार बर्ष की कीमतों पर की जाती है तो इसे स्थिर कीमतों पर राष्ट्रीय आय अथवा वास्तविक राष्ट्रीय आय कहा जाता है। स्थिर कीमतों पर राष्ट्रीय आय तभी बढ़ेगी, जब देश में वस्तुओं तथा सेवाओं के प्रधाह में वृद्धि होगी। ऐसी वृद्धि बास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि लाएणी। अतः यही आर्थिक प्रगति को मापने का सही सूचक माना जायगा और इसी के आधार पर राष्ट्रीय आय में वास्तविक परिवर्तन का पता लगाया जायगा।
प्रति व्यक्ति बास्तविक आय-
कुछ अर्थशात्री विशेषतः हादें, लरबेन्स्टीन, रोस्टोब, बारम बुकानन आदि प्रतिव्यक्ति बास्तविक आय को आर्थिक विकास का सूचक मानने के पक्ष में हैं। उनके अनुसार, आर्थिक विकास ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा दीर्घकाल में प्रतिग्यक्ति वास्तविक आय बढ़ जाती है। संयुक्त राष्ट्र संघके विशेषज्ञों ने भी अल्पविकसित अर्थव्यवस्था वाले देशों में इस सूचक को मान्य किया है। प्रो. मीर (लक्षण) ने ठीक ही कहा है, कि “किसी देश का आर्थिक विकास मुख्य रूप से बेहतर पोषण, बेहतर शिक्षा, बेहतर आवास, रोजगार तथा सुख-सुविधा से सम्बन्ध रखता है।
यदि आर्थिक विकास के ये ही अन्तिम उद्देश्य हैं तो प्रतिब्यक्ति बास्तविक आय में वृद्धि निश्चित ही इन उद्देश्यों को पूरा करने में सहायक होती है।
- आर्थिक कल्याण- आर्थिक विकास की माप आर्थिक कल्याण के द्वारा भी की जा सकती है।आर्थिक विकास यह प्रक्रिया है जो व्यक्तियों द्वारा उपभोग की जाने वाली वस्तुओं तथा सेवाओं में बृद्धि करती है। ओकेन तथा रिचर्डसन मे ठीक ही लिखा है कि आर्थिक विकास का आशय वस्तुओं व सेवाओं को अधिक से अधिक मात्रा में उपलब्ध करना है जिससे कि जनसामान्य के आर्थिक कल्याण में सतत एवं दीर्घकालीन उन्नति हो सके। आर्थिक कल्याण के इस सूचक की अपनी सीमाएँ भी हैं। ये सीमाएँ निम्न प्रकार हैं-
- क्स्तुओ तथा सेवाओं का उपभोग उपभोक्ता की व्यक्तिगत रुचि, पसंद तथा आदत पर निर्भर करता है। अतः कल्याण सूचकांक तैयार करते समय एक समाभ्त भार नहीं दिया जा सकता।
- कुल उत्पादन का राष्ट्रीय आय में बृद्धि पूँजीगत माल के उत्पादन में वृद्धि के कारण भी हो सकती है अतः उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन कम भी हो सकता है।प्रतिव्यक्ति उत्पादन में वृद्धि मात्र से यह नहीं माना जा सकता कि विकास हुआ है जब तक कि आब के वितरण, यास्तविक लागत, सामाजिक लागत आदि को ध्यान में नहीं रखा जाब |
इस सूचक में इस बात पर बल दिया गया है कि कुछ थुनियादी आवश्यकताएँ-पूरी किये बिना जीवन असंभव हो जाता है। भौतिक जीवन-गुणवत्ता सूचकांक ज्ञात करने के लिये तीन सूचकों को ध्यान में रखना आवश्यक है-
1. जीवन प्रत्थाशा अर्थात् एक नबजात शिशु कितनी अवधि तक इस संसार मैं जीने की आशा कर सकता है।
2. शिशु मृत्यु दर अर्थात् प्रति हजार कितने शिशु एक अर्ष की आयु पूरी करने के पूर्व मर जाते हैं।
3. साक्षरता अर्थात् कुल जनसंख्या की कितनी प्रतिशल जनसंख्या साक्षर है। उक्त तीन सूक्षकों को 1 से 100 तक के पैमाज़े पर रखा जाता है। 1 सबसे खराब निष्पादन का प्रतिनिधित्न करता है तथा 100 सबसे उत्तम निष्पादन का प्रतिनिधित्य करता है
मानव विकास साथ्य है जबकि राष्ट्रीय आय में युद्धि एक साथन है। विकास का वस्तविक उद्देश्य लोगों की पसंद में वृद्धि करना है। आय इनमें से एक पसंद है यद्यपि अत्यन्त महत्यपूर्ण है , किन्तु यही सब कुछ नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, भौतिक बाताबरण, लिंग, जाति, धर्म, राजनीतिक स्वतंत्रता आदि भेदभाव बिना अवसर की समानताएँ भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि आय |
वर्ष 1990 से संयुक्त राष्ट्रसंघ विकास कार्यक्रम के तत्वावधान में सदस्य देशों में मानव कि कार सूचकांक तैयार किया जाता है। इस सूचकांक के आधार पर विभिन्न देशों के विकास की माप की जाती है। इस सूचकांक के अन्तर्गत जीवन अ्रत्याशा ज्ञान का सार तथा प्रति व्यक्ति वास्तविक घरेलू उत्पाद के सूचकांकों को शामिल किया जाता है। प्रत्येक को 0-1 के पैमाने पर रखा जाता है ॥ प्रत्येक देश किसी न किसी बिन्दु पर आ जाता है,मानव विकास रिपोर्ट (2006) में कुल 177 देशों को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया था
1. उच्च मानव विकास वाले देश जिन का विकास सूचकांक 0.800 या अधिक है।
2. मध्यम मानव विकास वाले देश जिनका विकास सूचकांक 60.507 तथा 0.800 के नीच है और
3. निम्न मानव विकास वाले देश जिनका विकास सूचकांक 0.501 से कम है। इस दृष्टि से भारत का स्थान 126 वाँ है।
आर्थिक विकास की अवस्थाएँ-
ब्रोफेसर रोस्टोव ने आर्थिक विकास की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं जो निम्न प्रकार हैं-
1. परम्प्ररावादी अवस्था–
इस अवस्था के दौरान देश के अधिकांश साधन कुषि व्यवसाय में लगे होते हैं तथा उद्योग-धन्धे महुत ही पिछड़ी हुई अयस्था में होते हैं। कृषि भी चुराने चरम्परागत साथनों से की जाती है। नथीन वैज्ञानिक साधनों को काम से कि जाती है। इन झगके परिणाम स्वरूप इस अवस्था में उत्पादन का स्तर निम्न एजं प्रति व्यक्ति आय न्यूनतम शोती है; समाज का संगठन जातियाद एवं पारियारिक सम्मन्धों पर आधारित होता है। देश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था कमजोर तथा पिछड़ी हुई रहती है।
2. आत्मस्फूर्ति से पूर्व की अवस्था–
इस अवस्था में समाज परम्परावादी विधियों को छोड़कर बैज्ञानिक विधियों एवं लकनीकों का प्रयोग करने लगता है| इस अवस्था में (9 पूँजी-निवेश की मात्रा 10 श्रतिशल लक पहुँच जाती है तथा प्रति ब्यक्ति उत्पादन भी बढ़ जाता है। ग्रामीण जनसंख्या सड़कों व अन्य सासधनों में वृद्धि होने के कारण शहरों में आकर बसने लगती है। (11) खाद्याननों का उत्पादन आवश्यकतानुसार होने लगता है। औद्योगिक कच्छे माल का उत्पादन भी बढ़ने लगता है। कृषि क्षेत्र की बचत उद्योगों में विनियोजित होने लगती है। सरकार द्वारा भी जनकल्याण के कार्यों में अधिक योगदान दिया जाने लगता है
3. आत्मस्फूर्ति की अजस्था-
“आत्मस्फूर्ति अवस्था को उस मध्यान्तर काल के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसमें विनियोग की दर इस प्रकार बढ़ती है कि जिससे पति व्यक्ति बास्तविक उत्पादन बड़ने लगता है। साथ ही उत्पादन विधियों में आमूल परियर्तन होने लगते हैं तथा आय का विनियोग इस प्रकार प्रभावित होता है कि जिससे विनियोग की नवीन धाराएँ प्रभावित होती हैं जिसके परिणाम स्वरूप प्रतिव्यक्ति उत्पादन में वृद्धि हो जाती है प्रमुख बातें निम्न प्रकार होती हैं।
दूसरे शब्दों में इस अवस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं तथा विकास अपने आप होने लगता है। (॥) कृषि जय उद्योग में विकास का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगता है। (॥॥) निर्माणी उद्योगों में विकास तेजी से होने लगता है। देश के उस्पादन में वृद्धि तेजी से होती है। राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ता है। प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय आय बढ़ती है।
4. परिपक्क्ता की अवस्था-
इसे स्वप्रेरित विकास की अवस्था भी कहते हैं। इस अवस्था में साधनों का उपयोग इस सीमा तकः होने लगता है कि देश में सभी आयश्यक बसस््तुएँ पर्याप्त मात्रा में मनने लगती हैं। अत: अन्य देशों पर निर्भरता लगभग समाप्त हो जाती है। देश का व्यवसाय आर्थिक आधार पर किया जाने लगता है। इसका अर्थ है कि आर्थिक दृष्टि से जिन वस्तुओं का उत्पादन लाभकारी होता है केवल उन्हीं वस्तुओं क्रा उत्पादन किया जाता है, शेष को आयात करके ही काम चलाया जाता है। इस अवस्था में 15 से 20 प्रतिशत तक राष्ट्रीय आय का विनियोग किया जाता है। ग्रामीण जनसंख्या शहरी क्षेत्रों में रहना अधिक पसन्द करती है। इसलिये शहरी जनसंख्या में वृद्धि होती है।
5. अत्यधिक उपभोग की अवस्था-
यह आर्थिक विकास की अन्तिम अवस्था है। इसमें जनता की सामान्य आवश्यकताएँ आसानी से पूरी हो जाती हैं और सामान्य उपभोग स्तर ऊपर उठ जाती है तथा समाज का प्रत्येक व्यक्ति उपभोग की उच्चतम सीमा तक पहुँचना तथा विशिष्ट वस्तुओं का उपभोग करना चाहता है। भारत तीसरी अवस्था में नहीं पहुँच पाया है किन्तु निश्चित ही दूसरी अवस्था पार कर चुका है अत: हम कह सकते हैं कि भारत तीसरी अवस्था के द्वार पर खड़ा है और उसमें प्रवेश कर रहा है क्योंकि तीसरी अवस्था की विशेषताएँ पाई जाने लगी।