आर्थिक नियोजन के दोष या कठिनाइयाँ या समस्याएँ

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आर्थिक नियोजन के दोष या कठिनाइयाँ या समस्याएँ

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भारत में आर्थिक नियोजन की कठिनाइयाँ या समस्याएँ या दोष निम्न प्रकार हैं-

      1. पूँजी की कमी की समस्या उत्पन्न होना ।
      2. तकनीकी ज्ञान के अभाव की समस्याए उत्पन्न होना। 
      3. तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या की समस्या का साधक होना। 
      4. प्राथमिकताओं के निर्धारण की समस्या उत्पन्न होना | 
      5. विश्वसनीय तथा पर्याप्त आँकड़ों की उपलब्धता सम्बन्धी समस्या | 
      6. नियोजन की तकनीकी सम्बन्धी समस्या। 
      7. जनसहयोग के अभाव की समस्या | 
      8. प्रशासनिक दक्षता के अभाव की समस्या। 
      9. योग्य साहसियों की उपलब्धता की समस्या | 
      10.  विदेशी विनिमय की समस्या।
      11. मुद्रा स्फीति की समस्या | 
      12. भ्रष्टाचार की समस्या | 
      13. राजनीतिक अस्थिरता की समस्या आदि।
आर्थिक नियोजन के दोष या कठिनाइयाँ या समस्याएँ
आर्थिक नियोजन

आर्थिक नियोजन इन समस्याओं के फलस्वरूप नियोजन के कार्यक्रमों की रचना तथा उनके क्रियान्वयन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। योजनाओं के लक्ष्यों की पूर्ति समय पर नहीं हो पाती है। योजनाओं में मध्यावधि परिवर्तन करने पड़ते हैं, धन की कमी की पूर्ति अतिरिक्त कर लगाकर या घाटे की वित्त व्यवस्था अपनाकर की जाती है। फलस्वरूप सामान्य जनता की आर्थिक स्थिति बदतर हो जाती है। शासकीय धन का दुरुपयोग हर स्तर पर होने लगता है। 

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आर्थिक नियोजन

समस्याओं का समाधान कैसे हो ? 

इन समस्याओं का समाधान तभी सम्भव है, जब योजनाओं के कार्यक्रमों के निर्धारण में सावधानी बरती जाये, प्रशासनिक कुशलता में दक्षता लाई जाये, जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावकारी रोक लगाई जाये प्राथमिकताओं का सही-सही निर्धारण किया जाये, योजनाओं के लक्ष्यों का निर्धारण देश में उपलब्ध संसाधनों को ध्यान में रखकर किया जाये, राष्ट्रीय चरित्र का विकास किया जाये, भ्रष्टाचार पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण लाया जाये, कार्यक्रमों की प्रगति की सतत समीक्षा की जाये तथा जनसहयोग पर्याप्त मात्रा में प्राप्त किया जाये। आर्थिक नियोजन कोई दर्दरहित शल्य क्रिया नहीं है । कठिनाइयाँ तथा समस्याएँ तो आती हैं, किन्तु उनका समाधान करना हमारा कर्त्तव्य होना चाहिए। चुस्त प्रशासन, ईमानदार अधिकारी तथा जनता का सकारात्मक सहयोग प्रत्येक समस्या का सम्राधान कर सकते हैं।

आर्थिक नियोजन की सफलता के आवश्यक तत्व या सुझाव 

आर्थिक नियोजन की सफलता के आवश्यक तत्व निम्न प्रकार हैं”-

सांख्यिकीय समंकों की उपलब्धता- 

सांख्यिकीय प्रमंकों की पर्याप्तता तथा विश्वसनीयता आर्थिक नियोजन की सफलता की कुंजी है। 

उपयुक्त आर्थिक संगठन-

 आर्थिक संगठन इस प्रकार का होना चाहिए, जो नियोजन कार्य को प्रोत्साहन दे सके तथा देश की आवश्यकता तथा उपलब्ध संसाधनों को ध्यान में रखकर दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन योजनाओं को मूर्त रूप दे सके । संगठन में अनुभवी तथा विशेषज्ञों को शामिल करना आवश्यक है | 

सुदृढ़ सरकार एवं कुशल प्रशासन- 

विकास के प्रति समर्पित सुदृढ़ सरकार तथा कुशल प्रशासन आर्थिक नियोजन की सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है, ताकि आदर्श योजनाओं का निर्माण हो सके और उनका क्रियान्वयन सही ढंग से किया जा पके | प्रशास्त की कुशलता के अभाव में साधनों का अपव्यय होने तथा कार्यक्रमों का मूल्यांकन करने एवं 3न्‍हें लागू करने में शाथिलता की आशंका रहती है। 

प्राथमिकताओं का निर्धारण- 

योजनाओं के उद्देश्य तथा आवश्यकता के अनुसार प्राथमिकताओं का निर्धारण विवेकपूर्ण ढंग से होने और सीमित साधनों का श्रष्ठतम उपयोग होने से योजना की सफलता सुनिश्चित होती है। 

आर्थिक एवं भौतिक साधनों की पर्याप्तता- 

यदि देश में आर्थिक साधनों एवं भौतिक साधनों का अभाव है, तो योजना के वांछित लक्ष्य निर्धारित अवधि में पूरे नहीं हो सकेंगे । साधनों की पर्याप्तता योजना की सफलता के लिए एक आवश्यक तत्व है। 

व्यापकता- 

आर्थिक नियोजन के कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित होने चाहिए कि सभी क्षेत्रों का, सभी वर्गों का और सभी आवश्यकताओं का समावेश हो सके | कुछ ही क्षेत्रों का समावेश होने से नियोजन आंशिक होकर रह जाएगा और राष्ट्रीय समस्याओं का सही प्रतिनिधित्व नहीं हो सकेगा। 

व्यापक प्रचार- 

जनजागृति उत्पन्न करने के लिए आर्थिक नियोजन के कार्यक्रमों एवं उनसे होने वाले लाभों तथा जनहित का व्यापक प्रचार करना आवश्यक है। ऐसा करने से जनसहयोग एवं जनता की सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहन मिलता है। 

जनसहयोग- 

जन सहयोग के अभाव में कोई भी कार्यक्रम सफल नहीं हो सकता | जनसहयोग आर्थिक नियोजन के लिए ऊर्जा का कार्य करता है। जनसहयोग तभी प्राप्त हो सकता है, जब जनता को योजनाओं से होने वाले लाभों की सही-सही जानकारी दी जाए और उनमें विश्वास पैदा हो जाए। 

राजनैतिक स्थिरता- 

यदि थोड़े-थोड़े अन्तराल से सत्ता में परिवर्तन हों तो नीति निर्धारण तथा आर्थिक नियोजन की प्राथमिकताओं एवं कार्यक्रमों में बार-बार परिवर्तन होगा। इससे योजनाओं की सफलता में आशंका बनी रहती है। राजनीतिक स्थायित्व योजनाओं की सफलता के लिए अत्यन्त आवश्यक है, ताकि योजनाएँ निर्बाध गति से निर्धारित अवधि में लक्ष्यों के अनुरूप पूरी हो सकें ।

विदेशी सहायता की पर्याप्तता- 

प्रारम्भिक अवस्था में तथा दीर्घकालीन विनियोग प्रधान कार्यक्रमों को लागू करने के लिए पर्याप्त मात्रा में विदेशी सहोयता की आवश्यकता रहती है| पर्याप्त मात्रा में विदेशी सहायता तभी प्राप्त हो सकेगी, जब योजनाओं के”कार्यक्रम उपयुक्त हों तथा विभिन्‍न राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध हों । 

राष्ट्रीय चरित्र- 

आर्थिक नियोजन के कार्यक्रमों में भारी मात्रा मे विनियोग किया जाता है। अत: एक-एक रुपये का सही उपयोग होना चाहिए। इसके लिए प्रशासनिक अधिकारियों, कर्मचारियों तथा अन्य कार्यकर्त्ताओं में राष्ट्र के प्रति निष्ठा, ईमानदारी तथा विकास के प्रति लगन होना अत्यन्त आवश्यक है | साधनों का अपव्यय, दुरुपयोग अथवा निजी स्वार्थ की पूर्ति की लालसा राष्ट्र के साथ धोखा होगा और सारे कार्यक्रमों की सफलला में संदेह रहेगा। राष्ट्र को सर्वोपरि मानकर त्याग, परिश्रम एवं लगन का परिचय प्रत्येक व्यक्ति को देना होगा। 

अन्य बातें- 

उपर्युक्त, बातों के अलावा आर्थिक नियोंजन की सफलता के लिए निम्मलिखित बातें भी जरूरी हैं-

    1. जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण
    2. मुद्रा स्फीति पर प्रभावपूर्ण नियन्त्रण, 
    3. केन्द्रीय सरकौर तथा राज्य सरकारों के नीच तालमेल, 
    4. आन्तरिक शान्ति एवं सुरक्षा, 
    5. योजनाओं का मध्यावधि मूल्यांकन, 
    6. दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन विकास कार्यक्रमों में उचित समन्वय, 
    7. नवीन टेक्नोलॉजी को प्रोत्साहन | 
    8. घाटे की व्यवस्था का यथासम्भव कम से कम सहारा लेना

भारत में लागू की गई पंचवर्षीय योजनाएँ

पंचवर्षीय योजना का आशय- 

स्वतंत्रता के बाद देश के संतुलित एवं शीघ्र आर्थिक विकास के लिए नियोजित विकास की नीवि अपनाई गई । सन्‌ 1951 से पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से यह कार्य प्रारम्भ किया गया | पंचवर्षीय योजना का आशय ऐसे आर्थिक कार्यक्रम से है, जो पाँच वर्ष की अवधि में पूरे किये जाने चाहिए । अर्थात्‌ निर्धारित लक्ष्यों व कार्यक्रमों को पाँच वर्ष की अवधि में सम्पन्न करने की व्यूह रचना का नाम ही पंचवर्षीय योजना है। 

भारत में आर्थिक नियोजन का संक्षिप्त इतिहास

भारत में आर्थिक नियोजन का इतिहास दो भार्गो में विभाजित किया जा सकता है

    • स्वतंत्रता पूर्व आर्थिक नियोजन तथा, 
    • स्वतंत्रता के बाद आर्थिक नियोजन ।

स्वतंत्रता के पूर्व आर्थिक नियोजन- 

स्वतंत्रता प्राप्ति पूर्व आर्थिक नियोजन के सम्बन्ध में निम्नलिखित घटनाएँ उल्लेखनीय हैं-. 

सर विश्वेश्वरैया योजना-

(1934)प्रसिद्ध इंजीनियर सर एम. विश्वेश्वरैया ने सन्‌ 1934 में ” PLANNED ECONOMY FOR INDIA’’ नामक पुस्तक लिखी थी, जिसमें 10 वर्षीय योजना प्रस्तुत की गई थी, जिसके मुख्य उद्देश्य इस प्रकार थे-

    • दस वर्षों में राष्ट्रीय आय को दुगुना करना। 
    • औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि करना । 
    • लघु एवं बड़े उद्योगों का समन्वित विकास करना । 
    • व्यवसाय में संतुलनों की स्थापना करना । 

नियोजित आर्थिक विकास की दृष्टि से यह प्रथम योजना थी, किन्तु अनेक आर्थिक कठिनाइयों एवं सरकार की उपेक्षापूर्ण नीति के कारण इसे लागू नहीं किया जा सका। 

राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन-

(1938)भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया था, जिसने देश की आर्थिक समस्याओं को ध्यान में रखकर सरकार के समक्ष एक योजना प्रस्तुत की, जिसके मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार थे-

    • सहकारी कृषि को प्रोत्साहन देना 
    • उद्योगों का विकास करना । 
    • मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपनाना।
    •  कृषि-ऋणों को उपलब्ध कराना।
    •  सहकारी कृषि को प्रोत्साहन देना। 

लेकिन विश्वयुद्ध छिड़ जाने तथा कांग्रेस मंत्रिमण्डल द्वारा त्याग पत्र दिए बाने के कारण यह समिति कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकी। 

बॉम्बे योजना- 

(1944)बम्बई के 8 उद्योगपतियों ने मिलकर दस हजार करोड़ रुपये की एक 15 वर्षीय योजना का प्रारूप तैयार किया A PLAN FOR ECONOMIC DEVELOPMENT OF INDIA जिसे बॉम्बे प्लान की संज्ञा दी गई। इस योजना के मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार थे-

    • प्रति व्यक्ति आय को दुगुना करना। 
    • राष्ट्रीय आय को. तीन गुना करना । 
    • शिक्षा तथा उद्योगों को प्राथमिकता देना । 
    • परिवहन के साधनों का विकास करना । 
    • कृषि क्षेत्र में 130 प्रतिशत वृद्धि करना 
    • निजी उपक्रमों को प्रोत्साहन । 
    • प्रत्येक व्यक्ति को 2600 कैलोरी भोजन, 30 गज कपड़ा तथा न्यूनतम 100 वर्गफीट भूमि की पूर्ति सुनिश्चित करना। 

यह योजना पूँजीवादी बताई गई। इसमें निजी क्षेत्र को अधिक बल दिया गया था। इसे जन समर्थन नहीं मिल सका। 

जन योजना-

 (1944)भारतीय श्रम संघ के प्रमुख श्री एम.एन. रॉय के नेतृत्व में एक दस वर्षीय पंद्रह हजार करोड़ रु. की जनयोजना वर्ष 1944 में बनाई गई, जो साम्यबादी सिद्धान्तों पर आधारित थी। इस योजना में आर्थिक क्षेत्र में राजकीय हस्तक्षेप की आवश्यकता पर विशेष बल दिया गया था। इस योजना के मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार थे- 

    • 10 वर्षों में जनता की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करना । 
    • सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का विकास करना । 
    • आय की असमानता को दूर करना | 
    • रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना | 
    • कृषि-उत्पादन बढ़ाना |

चूँकि यह योजना साम्यवादी विचारधारा पर आधारित थी। अतः इसे उपयुक्त नहीं समझा गया।

गॉँधीवादी योजना- 

(1944)यह योजना प्रहात्मा गाँधी की विचारधारा से प्रेरित होकर श्रौ मनलानारायण अग्रवाल ने प्रस्तुत की थी, जो 3500 करोड़ ९. की थी। इस योजना का मुख्य लक्ष्य जन समुदाय के जीवन-स्ठर को निर्धारित न्यूनतम सीमा तक लाना था, जिससे प्रत्येक नागरिक को 2600 कैलोरी वाला संतुलित भोजन, 120 गज कपड़ा, 100 वर्गफीट आबासीय भूखण्ड प्राप्त हो सके । इसके , मुख्य उद्देश्य निम्न प्रकार थे-

    • ग्रार्मों का पर्याप्त विकास करना | 
    • सामूहिक कृषि का विकास करना | 
    • भारी उद्योगों एवं जनउपयोगी सेवा वाले उद्योग राज्य के अधीन संचालित करना । 
    • रोजगार के अवसरों में अधिक लै अधिक वृद्धि करना | 
    • प्रति व्यक्ति आय में चार गुनी वृद्धि करना । 

किन्तु वित्तीय साधनों की अनुपलब्धता के कारण इस योजना को क्रियान्वित नहीं किया जा सका। 

स्वतंत्रता के पश्चात्‌ आर्थिक नियोजन –

भारत को 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता मिली, तभी से नियोजित विकास की नीति लागू करने की मानसिकता विकसित हुई। तदनुसार 1948 में औद्योगिक नीति घोषित की गई तथा 1951 में औद्योगिक (विकास एवं नियमन) अधिनियम बनाया गया। 1950 में 30 जनवरी को श्री जयप्रकाश ने शोषण विहीन समाज की स्थापना के उद्देश्य से सर्वोदय योजना प्रस्तुत की। इसके मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित थे-

(अ) आय तथा सम्पत्ति की असमानता दूर करना, 

(ब) उद्योगों का संचालन समाज द्वारा करना। 

(स) भूमि का पुनः वितरण करना । 

(द) सहकारी खेती का विकास करना । 

(इ) विदेशी लाभ अर्जित करने वाले प्रतिष्ठानों पर कठोर नियन्त्रण लगाना। 

(ई) सम्पूर्ण राज्य की आय का आधा भाग ग्राम पंचायतों द्वारा तथा आधा भाग शासकीय सत्ता द्वारा व्यय करना। यह योजना पूर्ण रूप॑ से सरकार ने स्वीकार नहीं की, लेकिन इससे निहित कुछ सिद्धान्तों को अवश्य मान लिया। 

भारत का योजना आयोग 

15 मार्च, 1950 को भारत सरकार ने योजना आयोग की स्थापना की। आयोग के प्रथम अध्यक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू बने। देश का प्रधानमंत्री इसका पदेन अध्यक्ष होता है। उपाध्यक्ष तथा सदस्य भारत सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। वर्तमान में इसके अध्यक्ष पदेन प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह हैं तथा उपाध्यक्ष श्री मौटेकसिंह अहलूबालिया हैं । आठ अन्य विशेषज्ञ इसके सदस्य हैं।

योजना आयोग के कार्य-

योजना आयोग के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं- 

    1. देश के भौतिक, अभौतिक, पूँजीगत तथा मानवीय संसाधनों का अनुमान लगाना। 
    2. राष्ट्रीय संसाधनों के अधिकतम विदोहन व प्रयोग की रणनीति बनाना। 
    3. विकास की प्राथमिकताएँ निर्धारित करना तथा तदनुसार संसाधनों का आवंटन करना। 
    4. योजना के सफल संचालन के लिए संभावित अवरोधों को दूर करने के उपाय सरकार क्ये बताना
    5. योजना की प्रगति का समय-समय पर मूल्यांकन करना। 
    6. केद्रीय एवं राज्य सरकारों को आवश्यकता पड़ने पर परामर्श देना। 

राष्ट्रीय विकास परिषद  

6 अगस्त 1952 को राष्ट्रीय विकास परिषद की स्थापना की गई। प्रधान मंत्री इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं। यह एक गैर-संविधानिक निकाय  है, जिसका उद्देश्य राज्यों तथा थोजना आयोग के बीच सहयोग का बातावरण बनाकर आर्थिक नियोजन को सफल बनाना है। वर्तमान मैं, सभी राज्यों के मुख्य मंत्री, केन्द्रीय मंत्रिपरिषद के सभी सदस्य, केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासक तथा योजना आयोग के सभी सदस्य परिषद के पदेन सदस्य होते हैं। 

राष्ट्रीय विकास परिषद के कार्य –

राष्ट्रीय विकास परिषद के प्रमुख कार्य निम्न प्रकार हैं-

    • प्राथमिकताओं के निर्धरण में योजना आयोग को परामर्श देना। 
    • योजना के लक्ष्यों के निर्धारण में योजना आयोग को सुझाव देना | 
    • योजना को प्रभावित करने बाले आर्थिक-सामाजिक घटकों की समीक्षा करना | 
    • योजना आयोग द्वारा तैयार की गई योजना का अध्ययन करना तथा अन्तिम रूप देना एवं स्वीकृति प्रदान करना।
    • राष्ट्रीय योजना के संचालन का समय-समय पर मूल्यांकन करना।

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