“उपभोग” (UPBHOG)
उपभोग का अर्थ (Upbhog ka arth)-
उपभोग का सामान्य अर्थ, बस्तु का उपभोग करना है। वस्तु के उपभोग से वस्तु पूर्णतः नष्ट हो आती है, ऐसा समझा जाता है, परन्तु ऐसा नहीं है। मनुष्य न तो किसी वस्तु का निर्माण कर सकता है और न ही किसी वस्तु को नष्ट कर सकता है।
जैसे यदि कोई लकड़ी का उपभोग करता है, तो लकड़ी मूलतः नष्ट नहीं होती, बल्कि बह कोयले के रूपमों आ जाती है और यदि कोयले का पुनः उपयोग करते हैं, तो वह राख के रूप में बदल जाता है। अतः उसे (लकड़ी) मूलतः नष्ट नहीं किया जा सकता। इस प्रकार, एक बार लकड़ी का उपयोग करने पर हम दोबारा लकड़ी से उपयोगिता प्राप्त नहीं कर सकते, क्योंकि उसका रूप बदलकर कोयला बन जाता है।
उपभोग की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं (Upbhog ki paribhasha) –
- प्रो. पेन्सन के अनुसार,- ‘ आर्थिक रूप में आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन के उपयोग को ही उपभोग कहते हैं।
- प्रो. ऐली के अनुसार,- “व्यापक अर्थ में उपभोग का अर्थ मानवीय आवश्यकताओं की तुष्टि के लिए आर्थिक वस्तुओं और व्यक्तिगत सेवाओं के प्रयोग से है ।
- प्रो. मेयर्स के अनुसार-‘ उपभोग मानव आवश्यकता की पूर्ति में लायी गयी वस्तुओं अथवा सेवाओं का प्रत्यक्ष तथा अन्तिम प्रयोग है।
उपभोग की परिभाषा के आवश्यक तत्व (Upbhog ki paribhasha k aavashyak tatv) –
- उपभोग के अर्थ को स्पष्ट रूप से समझने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है
- उपभोग से किसी आवश्यकता की सन्तुष्टि होनी चाहिएकोई भी क्रिया उपभोग तभी कहलाती है, जबकि उससे आवश्यकता की सन्तुनिष्ट हो। भूखे व्यक्ति के साने रखा भोजन उसी समय उपभोग कहलायेगा जबकि वह उसे खाता है।
- आवश्यकताओं की सन्तुष्टि प्रत्यक्ष होनी चाहिए उपभोग के अन्तर्गत आवश्यकतों की सन्तुष्टि प्रत्यक्ष होनी चाहिए। आवश्यकाओं की सन्तुनिष्ट अप्रत्यक्ष होने पर बह अर्थशास्त्र में उत्पादन कहलाता है।एक व्यक्ति जब कमीज को पहनता है तो बह उपभोग है, परन्तु एक दर्जी जब कपड़े का प्रयोग करके कमीज बनाता है तो बह वास्तविक उपभोग न कहलाकर उत्पादन कहलाता है।
- उपभोग में वस्तु की उपयोगिता नष्ट होती है न कि बसस््तु किसी वस्तु का उपभोग करने पर उसकी उपयोगिता नष्ट हो जाती है न कि वह वस्तु। वास्तव में मनुष्य न तो किसी पदार्थ को बना सकता है और ही उसे नष्ट कर सकता है। हाँ, वह उसकी उपयोगिता में ।
उपभोग के प्रकार (Upbhog k prakar)–
उपभोग के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-
- शीघ्र एवं मन्द उपभोग वे व्स्तुएँ जिनका उपभोग करने से उपयोगिता शीघ्र नष्ट हो जाती है, जैसेरोटी, पानी आदि। इस उपभोग को शीघ्र उपभोग कहते हैं। इसके विपरीत उन वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोग जिससे मनुष्य को अधिक लम्बे समय तक संतुष्टि मिलती है, उसे मंद उपभोग कहते हैं। जैसेयदि एक डॉक्टर क्लिनिक आने के लिए कार का उपयोग करता है, तो वह उसका उपयोग कई वर्षों तक करता रहता है। इसे मंद उपभोग कहते है
- उत्पादक एवं अन्तिम उपभोग- उत्पादक उपभोग बह उपभोग है, जिसके अन्तर्गत वस्तुओं तथा सेवाओं का उपयोग किसी वस्तु के उत्पादन कार्य के लिए उपयोग किया जाता है तथा उत्पादित बस्तु से मनुष्य की आवश्यकताओं की संतुष्टि की जाती है। जैसे सोयाबीन का उपयोग खाद्य तेल बनाने में किया जाता है।“अंतिम उपभोग वह उपभोग है, जिसके बाद वस्तु में पुन: आवश्यकता को संतुष्ट करने का गुण या क्षमता नहीं रह जाती” तथा बस्तु के प्रयोग से आवश्यकता की प्रत्यक्ष संतुष्टि की जाती है। जैसेअनाज का उपयोग बीज के रूप मे न कर, भोजन के रूप में किया जाना।
- वर्तमान एवं स्थगित उपभोग- वर्तमान उपभोग वह उपभोग है जो वर्तमान या तात्कालिक आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है। जबकि स्थगित उपभोग वह उपभोग है जो भविष्य में उत्पन्न होने वाली आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए रख दिया जाता है, इसे स्थगित उपभोग भी कहा जाता है। जैसेअनाज का उपयोग वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न कर भविष्य के लिए संचित कर रख लेना।
- प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष उपभोग- जब किसी वस्तु का उपभोग उसका रूप बदले बिना किया जा सकता है, तो उसे प्रत्यक्ष उपभोग कहते हैं, लेकिन जब वस्तु का उपभोग उसका रूप बदले बिना नहीं किया जा सकता, तो उसे अप्रत्यक्ष उपभोग कहते हैं।
उपभोग तथा विनाश में अन्तर (Upbhog tatha vinash me anter) –
- उपभोग तथा विनाश में अन्तर होता है। जब वस्तु की उपयोगिता किसी आवश्यकता को संतुष्ट करने के पश्चात् होती है, तो उसे उपभोग कहा जाता है। इसके विपरीत जब कोई वस्तु मानवीय आवश्यकता को संतुष्ट किये बिना ही नष्ट हो जाती है, तो यह विनाश कहलाता है। उपभोग मानवीय दृष्टि से एक सार्थक क्रिया है, जबकि विनाश एक निरर्थक क्रिया है।
उपभोग का महत्व (Upbhog ka mahatv) –
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- उपभोग आर्थिक क्रियाओं का उद्देश्य उपभोग सभी आर्थिक क्रियाओं का एकमात्र कारण और उद्देश्य है। मनुष्य में उपभोग करने की इच्छा ही उत्पादन, विनिमय व वितरण सम्बन्धी क्रियाओं को जन्म देती है।..’
- आर्थिक विकास का मापदण्डजिस देश में उपभोग का स्तर जितना ऊँचा होता है वह आर्थिक दृष्टि से उतना ही विकसित माना जाता है। विकसित देश के निवासी आवश्यकता की वस्तुओं के साथ-साथ आरामदायक तथा विलासिता की वस्तुओं का उपभोग करते हैं। अतः उपभोग से आर्थिक विकास का अनुमान लगाया जा सकता है।
- विभिन्न क्रियाओं का आधारउपभोग स्वरूप ही देश में उत्पादन की मात्रा व प्रकृति को निर्धारित करता है। किस वस्तु का उत्पादन किया जाए तथा कितनी मात्रा में, यह उपभोक्ताओं की माँग पर निर्भर करता है। दूसरे शब्दों में, उपभोग ही इसे निर्धारित करता है। इसी प्रकार विनिमय तथा वितरण क्रियाएँ भी उपभोग क्रिया के कारण ही सम्पादित होती हैं। उपभोग की इच्छा से प्रेरित होकर ही उपभोक्ता मुद्रा के बदले उस वस्तु को क्रय करने के लिए तैयार होता है। उपभोग के कारण उत्पादन के साधन उचित पारितोषण चाहते हैं।
- रोजगार के स्तर की मापसमाज में रोजगार का स्तर उपभोग की मात्रा पर निर्भर करता है। समाज में जितना अधिक उपभोग होगा, उतना ही अधिक उत्पादन किया जायेगा। उत्पादन बढ़ने पर देश में लोगों को अधिक रोजगार मिलने लगता। इसके विपरीत उपभोग कम होने पर उत्पादन कम होता है तथा रोजगार का स्तर घटने लगता है।
- पूजी निर्माण में सहायकजिस देश में व्यक्तियों की उपभोग प्रवृत्ति तीव्र होती है वहाँ आय का अधिकांश भाग अपनी आवश्यकता की वस्तुओं पर ही व्यय कर दिया जाता है। अतः बचत एवं पूँजी मिर्माण की दर नीची रह जाती है। प्रायः विकासशील देशों में ऐसी प्रवृत्ति देखी जाती है। इसके विपरीत देशों में उपभोग प्रवृत्ति तीम्र नहीं होती, क्योंकि वहाँ पहले से ही आरामदायक तथा विलासिता की वस्तुओं का उपभोग हो रहा होता है। अत: आय का बड़ा भाग बचा लिया जाता है तथा पूँजी निर्माण की दर ऊँची होती है। इस प्रकार उपभोग प्रवृत्ति पर बचत एवं पूँजी निर्माण की दर निर्भर करती है।
- मूल्य निर्धारण में सहायकउपभोग प्रवृत्ति के आधार पर उत्पादक को इस बात का ज्ञान होता है कि अमुक वस्तु के लिए “उपभोक्ता की बचत” कितनी है। उपभोक्ता की बचत अधिक होने पर बस्तु का मूल्य ऊँचा तथा उपभोक्ता की बचत कम होने पर बस्तु का मूल्य नीचा निर्धारित किया जाता है।
- नीति निर्धारण में सहायकदेश में उपभोग के स्तर व प्रकृति को देखकर सरकार अपनी आयव्यय व अन्य आर्थिक नीतियों का निर्धारण करती है। अतः उपभोग नीति निर्धारण में सहायक होता है।
महत्वपूर्ण तथ्य (mahatvpoorn tatya) –
- सामान्य अर्थ में उपभोग से आशय वस्तु का उपयोग करना है।
- उपभोग मानव आवश्यकता की पूर्ति में लाई गई वस्तुओं तथा सेवाओं का प्रत्यक्ष तथा अत्तिम ग्रयोग है। उपभोग के आवश्यक तत्व
- (1) किसी आवश्यकता की सन्तुष्टि
- (2) आवश्यकता की प्रत्यक्ष संतुष्टि
- (3) वस्तुकी उपयोगिता नष्ट होना ।
उपभोग के प्रकार (Upbhog k prakar) –
- (1) शीघ्र उपभोग एवं मंद उपभोग
- (2) उत्पादक उपभोग एवं अन्तिम उपभोग
- (3) वर्तमानउपभोग एवं स्थगित उपभोग
- (4) अत्यक्ष उपभोग एवं अप्रत्यक्ष उपभोग ।
- शीघ्र उपभोगबह उपभोग जिसमें उपभोग करने से वस्तु की उपयोगिता शीघ्र नष्ट हो जाती है, शीघ्र उपभोग कहलाती है।
- उत्पादक उपभोगउत्पादक उपभोग बह उपभोग है, जिसके अंतर्गत बस्तुओं एवं सेवाओं का उपयोग किसी वस्तु के उत्पादन कार्य के लिए किया जाता है तथा उत्पादित वस्तु से मनुष्य की आवश्यकताओं की संतुष्टि की जाती है ।
- अंतिम उपभोगअंतिम उपभोग वह उपभोग है जिसके बाद वस्तु में पुन: आवश्यकता को सांतुष्ट करने का गुणया क्षमता नहीं रह जाती तबा वस्तु के प्रयोग से आवश्यकता की प्रत्यक्ष संतुष्टि की जाती है ।
- वर्तमान उपभोगवर्तमान उपभोग वह उपभोग है जो तात्कालिक वा वर्तमान आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए किया जाता है, जबकि स्थगित उपभोग वह उपभोग है, जो भविष्य में उत्पन्न होने वाली आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए रल विया जाता है।
- प्रत्यक्ष उपभोग- जब किसी वस्तु का उपभोग उसका रूप बदले बिना किया जाता है, तो उसे प्रत्यक्ष उपभोग कहते हैं।
अप्रत्यक्ष उपभोगजब कस्तु का उपभोग उसका रूप बदले बित्र नहीं किया जा सकता, तो उसे अप्रत्यक्ष उपभोग कहते हैं।
- विनाशजब कोई वस्तु मानवीय आवश्यकता को संतुष्ट किए बिना ही नष्ट हो जाए, तो कह विनाश कहलाता है।
उपभोग का महत्व (Upbhog ka mahatv)-
- (1) आशिक क्रियाओं का उद्देश्न
- (2) आर्थिक विकास का मापदण्ड
- (3) विभिन््तर क्रिकाओंका आधार
- (4) रोजगार के स्तर की माप
- (5) पूँजी निर्माण में सहायक
- (6) मूल्य निर्धारण में सहायक
- (7) नीति
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