गरीबी एवं बेरोजगारी

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प्रस्तावना –

नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे गरीबी एवं बेरोजगारी,PROBABILITY AND UEMPLOYMENT,गरीबी का अर्थ,गरीबी के प्रकार,भारत में गरीबी का आकलन,भारत में गरीबी के कारण,योजनाकाल में गरीबी दूर करने के प्रयास के वारे में बात करेंगे |

गरीबी एवं बेरोजगारी

गरीबी का अर्थ (MEANING OF POVERTY)-

गरीबी का आशय जीवन की उस स्थिति से है जिसमें व्यक्ति बुनियादी आवश्यकताओं (भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्सा, शिक्षा) को पूरा नहीं कर सकता अर्थात्‌ न्यूनतम जीवन स्तर से वंचित रहता है और केवल निर्वाह स्तर पर गुजारा करना पड़ता है। योजना आयोग के अनुसार गरीबी का अनुमान दो प्रकार से लगाया जाता हैएक तो परिवार द्वारा अर्जित आय के आधार परं तथा दूसरे परिवार द्वारा उपभोग की मदों पर किये गये खर्च के आधार पर |

प्रथम प्रकार में उस परिवार को गरीब ध्षमझा जाता है जिसकी मासिक आय गाँव में 328 रुपये तथा शहर में 454 रुपये से कम हो । दूसरे प्रकार मैं वह परिवार गरीब माना जाता है जिसमें गाँव में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरीज तथा शहर. में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 2100 कैलोरीज आहार उपलब्ध नहीं होता अर्थात्‌ पौष्टिक आहार प्राप्त नहीं होता |

गरीबी के प्रकार  (TYPE OF POVERTY)

गरीबी दो प्रकार की होती है

(1) निरपेक्ष गरीबी तथा

(2) सापेक्ष गरीबी

निरपेक्ष गरीबी-

जब किसी व्यक्ति की आय या उपभोग व्यय इतना कम होता है कि वह न्यूनतम भरण-पोषण स्तर के नीचे स्तर पर गुजारा कर रहा है, अर्थात्‌ जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पर्याप्त वस्तुएँ व सेवाएँ नहीं जुटा पात्रा है तो वह निरपेक्ष गरीबी में जी रहा है। दूसरे शब्दों में, यदि वे न्यूनतम वस्तुएँ भी किसी व्यक्ति को नहीं मिलती हैं तो कहते हैं कि-वह गरीबी की रेखा से नीचे स्तर पर रह रहा है।

यदि उसको वे न्यूनतम वस्तुएँ व सेवाएँ मिल जाती हैं तो कहते हैं कि गरीबी की रेखा के बराबर है। जब किसी व्यक्ति को उस न्यूनतम स्तर से अधिक वस्तुएँ और सेवाएँ मिलती हैं तो इसे गरीबी की रेखा से ऊपर कहा जाता है। इस प्रकार निरपेक्ष गरीबी का आशय उस न्यूनतम आय से है जिसकी एक परिवार के लिये बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिये आवश्यकता होती है किन्तु जिसे वह परिवार जुटा नहीं सकता।

सापेक्ष गरीबी-

सापेक्ष गरीबी का आशय आय की असमानताओं से है। जब हम दो देशों की प्रतिव्यक्ति आय की तुलना करते हैं और भारी अन्तर पाते हैं तो इस अन्तर के आधार पर हम गरीब देश तथा अमीर देश की तुलना कर सकते हैं। सापेक्ष गरीबी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक असमानता अथवा क्षेत्रीय आर्थिक असमानताओं को बतलाती है।

भारत में गरीबी का आकलन-

योजना आयोग ने प्रो. डी.टी. लकड़वाला की अध्यक्षता में भारत में निर्धाता का आकलन करने हेतु एक विशेषज्ञ दल का गठन किया। इस दल के गठन के पूर्व योजना आयोग राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के सर्वेक्षणों के आधार पर गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों का अनुमान लगाता था। इस आधार पर योजना आयोग ने वर्ष 1993-94 के लिए देश में 18.96 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे आकलित की।

प्रो.लकड़वाला ने सर्वेक्षणों के आधार पर आकलित किए गये निर्धनता अनुपात को अविश्वसनीय घोषित करते हुए अलग-अलग राज्यों में गगीबी के आकलन के लिए वैकल्पिक फार्मूले के आधार पर अलग-अलग गरीबी रेखाओं का निर्धारण किया है। इसमें शहरी गरीबी के के लिए औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक एवं ग्रामीण क्षेत्रों के आकलन के लिए कृषि श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को आधार बनाया गया है |

योजना आयोग ने लकड़वाला फार्मूले 11 मार्च, 1997 को स्वीकार कर लिया और वर्ष 1993-94 में इस फार्मूले के आधार पर गरीबी रेखा के नीचे लोगों की संख्या 36% आकलित की गई थी। इसी फार्मूले के आधार पर यह प्रतिशत वर्ष 1990. 2000 के लिए 26.1% आकलित किया गया है।भारत में गरीबी के नवीनतम आँकड़े योजना आयोग द्वारा फरवरी 2001 में जारी किए गए।

देश ग्रे गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली जनसंख्या का प्रतिशत वर्ष 1999-2000 में 26.1% रहा जबकि 199394 में यह 36% के ऊँचे स्तर पर था। ताजा आँकड़ों के अनुसार 1999-2000 में ग्रामीण क्षेत्रों में यह गरीबी प्रतिशत 27.09 तथा शहरी क्षेत्रों में 23.62 प्रतिशत रहा जबकि 1993-94 के आकलन में यह प्रतिशत क्रमशः 37.3% तथा 32.4% था। निरपेक्ष संख्या की दृष्टि से कुल 26.02 करोड़ आबादी 1999-2000 में गरीबी रेखा के नीचे थी जिसमें 19.32 करोड़ व्यक्ति ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 6.71 करोड़ व्यक्ति शहरी क्षेत्रों में थे।

1993-94 में यह संख्या क्रमशः 24.40 करोड़ तथा 7.63 करोड़ थी। वर्तमान में गरीबी की रेखा के नीचे 25 प्रतिशत लोग हैं।निर्धनों की निरपेक्ष संख्या की दृष्टि से उत्तर प्रदेश 5.3 करोड़ निर्धन आबादी के साथ पहले स्थान पर है। उसके बाद बिहार (4.3 करोड़), मध्य प्रदेश (3.0 करोड़), महाराष्ट्र (2.2 करोड़), पश्चिम बंगाल (2.1 करोड़) तथा उड़ीसा (1.7 करोड़) राज्य हैं।निर्धनता अनुपात में उड़ीसा राज्य देश में 47.2% के साथ प्रथम स्थान पर है। दूसरा स्थान बिहार (42.6%) तथा तीसरा स्थान मध्य प्रदेश का (37.43%) है।

देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या 1973-74 में 54.9% से घटकर जहाँ 1983 में 44.7% तथा पुनः 1993-94 में 36.0% रह गई थी, वहीं निर्धनों की कुल संख्या जो 1973-74 में 32 करोड़ थी 1983 तथा 1993-94 में भी 32.1.करोड़ ही बनी रही थी। 1999-2000 में देश में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली जनसंख्या जहाँ कुल जनसंख्या का 26.10% रह गई वहीं निर्धनों की कुल जनसंख्या भी 32 करोड़ से घटकर 1999-2000 में 26 करोड़ रह गयी। 11वीं योजना के अन्त तक अर्थात्‌ 2006-0 में इसके 22.01 करोड़ रह जाने का अनुमान है तथा गरीबी अनुपात भी 21 प्रतिशत रह जाने का अनुमान है।

भारत में गरीबी के कारण-

भारत में गरीबी की समस्या निम्न कारणों से है

आर्थिक विकास का निम्न स्तर-

हमारे देश में आर्थिक विकास का स्तर नीचा है। अभी भी हम अपने प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों का पूरा-पूरा उपयोग नहीं कर पा रहे है। पूँजी की कमी, तकनीकी तथा प्रबन्धकीय योग्यता की कमी आदि के कारण आर्थिक वृद्धि दर कम रही है। अतः गरीबी की समस्या विद्यमान है।

आय तथा धन का असमान वितरण-

आर्थिक विकास का अधिकांश लाभ कुछ ही धनी वर्ग के लोगों को हुआ है और गरीब लोग इससे वंचित रह गये हैं। आज भी जनसंख्या का पाँचवाँ भाग गरीबी की रेखा के नीचे जीवन व्यतीत कर रहा है। विश्व बैंक की विकास रिपोर्ट से पता चलता है कि शीर्ष के 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल राष्ट्रीय आय का 33.5 प्रतिशत भाग है, जबकि नीचे के तपके के 10 प्रतिशत लोगों के पास कुल आय का 3.5 प्रतिशत भाग ही है।

भूमि की जोत में भी काफी विषमता पाई जाती है। शहरों में रहने वाले केवल 10 प्रतिशत धनाड्य वर्ग के पास शहरी सम्पत्ति का 58 प्रतिशत है जबकि नीचे के तपके के 10 प्रतिशत निर्धन वर्ग के पास 1 प्रतिशत ही है।

जनसंख्या में वद्धि-

भारत में तेज गति से हो रही जनसंख्या वृद्धि भी गरीबी के लिये उत्तरदायी है। जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप प्रतिव्यक्ति आय घट जाती है तथा परिणामस्वरूप जीवन स्तर भी घट जाता है। राष्ट्रीय आय की दृष्टि से भारत विश्व के 10 देशों म॑ गिना जाता है, किन्तु प्रतिव्यक्ति आय की दृष्टि से उसका स्थान 100वाँ है। जब राष्ट्रीय आय का बहुत बड़ा हिस्सा उपभोग पर खर्च हो जाता है तो विकास के लिये बहुत कम राशि बचती है। जनसंख्या वृद्धि से सामान्य कीमत स्तर भी ऊँचा चला जाता है जो गरीबी को बढ़ावा देता है।

प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण विदोहन नहीं होना-

भारत प्राकृतिक संसाधनों की दृष्टि से एक धनी देश है। यहाँ कोयला, कच्चा लोहा, मैंगनीज, अभ्रक, प्राकृतिक नदियाँ आदि पर्याप्त मात्रा में है किन्तु पूँणनी व तकनॉलाजी की कमी से इन संसाधनों हक विदोहन नहीं हो पाता है। अतः विकास की गति धीमी रहती है। इससे गरीबी की समस्या बनी रहती है।

निरक्षरता-

भारत में आज भी 35 प्रतिशत लोग निरक्षर है। गाँवों में निरक्षता का प्रतिशत और अधिक है। निरक्षर भारतीय कृषक आधुनिकतम तकनॉलाजी एवं कृषि की नई प्रणाली को अपनाने में हिचकते हैं। दूसरी ओर साहूकार धोखाधड़ी करके उन्हें ठगते रहते हैं। शहरी क्षेत्रों में भी अनपढ़ मजदूरों का शोषण होता है। उन्हें गन्दी बस्तियों में दयनीय जीवन व्यतीत करना पड़ता है क्योंकि उन्हें मजदूरी बहुत कम दी जाती है। अतः श्रम की उत्पादकता तथा श्रमिकों की आय कम रहती है। अनपढ़ व्यक्ति अपने अधिकारों के लिये पुरजोर ढंग से संघर्ष नहीं कर सकता । इस कारण गरीबी में उन्हें जीना पड़ता है।

कृषि का पिछड़ापन

भारत में आज भी लगभग आधी से अधिक जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है, किन्तु कृषि क्षेत्र का सकल घरेलू उत्पाद में योगदान केवल 25 प्रतिशत ही है। इससे हमारी कृषि का पिछड़ापन स्पष्ट हो जाता है। कृषि के पिछड़े पन के लिये कई घटक उत्तरदायी है। जैसेभूमि पर जनसंख्या का बढ़ता हुआ दबाव, सिंचाई सुविधाओं की अपर्याप्तता पुरानी परम्परागत कृषि पद्धति, पुराने औजार तथा उपकरणों का उपयोग, सस्ती साख सुविधाओं का अभाव, उन्नत बीज, रासायनिक खाद तथा कीटनाशक दवाइयों की पर्याप्त मात्रा में समय पर उपलब्धि नहीं होना, बिजली की कमी आदि।

रोजगार के अवसरों की कमी-

भारत में बेरोजगारी दूर करने के लिये रोजगार के पर्याप्त अवसर निर्मित नहीं, किये गये हैं। बेरोजगारी, अर्द्ध बेरोजगारी, मौसमी बेरोजगारी तथा अदृश्य बेरोजगारी निरन्तर बढ़ती जा रही हैं। परिणामस्वरूप गरीबी में वृद्धि हो रही है।

दोषपूर्ण विकास नीति-

भारत मेंआर्थिक विकास मॉडल विदेशी मॉडल के आधार पर तैयार किया गया है। रोजगारोन्मुंख विकास के स्थान पर विनियोगप्रधान विकास कार्यक्रमों पर विशेष ध्यान दिया गया है। लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास को उचित प्राथमिकता नहीं दी गई है। इससे गरीबी कम होने में सफलता नहीं मिली है। भारत को अपनी परिस्थितियों के अनुरूप विकास के कार्यक्रमों को लागू करना चाहिये।

सामाजिक घटक-

भारत में सामाजिक कुप्रथाएँ, रीति-रिवाज, जाति प्रथा, अंधविश्वास, उत्तराधिकार के नियम, संयुक्त परिवार प्रणाली, विभिन्‍न अवसरों पर फिजूल खर्ची आदि के फलस्वरूप गरीबी दूर करने में सफलता नहीं मिल पाई है। लोग गरीबी को भाग्य की देन मानते हैं तथा अधिक मेहनत नहीं करते हैं।

राजनैतिक घटक –

ब्रिटिश शासन ने अपनी स्वार्थ-पूर्ति के लिये भारत का खूब आर्थिक शोषण किया तथा लोगों का जीवन स्तर उन्नत करने उनकी आय बढ़ाने तथा उन्हें शिक्षित करने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। ब्रिटिश शासन काल में भारत औद्योगिक आधार कमजोर बना रहा। कृषि के विकास पर भी ध्यान नहीं दिया गया। इस कारण गरीबी की समस्या दिनोंदिन गंभीर होती चली गई।

योजनाकाल में गरीबी दूर करने के प्रयास-

  स्वतंत्रता के बाद भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने तथा गरीबी, बेरोजगारी पिछड़ापन, निरक्षता, क्षेत्रीय असंतुलब आदि समस्याओं के निवारण के लिये नियोजित विकास की 1951 से अपनाई | अभी तक हम 10 पंचवर्षीय योजनाएँ पूरी कर चुके हैं तथा 11वीं पंचवर्षीय योजना की रूपरेखा तैयार की जा चुकी है। इन पंचवर्षीय योजनाओं में जो लक्ष्य तथा विकास के मुद्दे निर्धारित गये हैं उनका प्रत्यक्ष वर अप्रत्यक्ष रूप से सम्बन्ध गरीबी दूर करने से ही है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में द्वितीय विश्वयुद्ध तथा देश के विभाजन के फलस्वरूप हुई क्षतिग्रस्त अर्थव्यवस्था के पुनरुत्थान का लक्ष्य रखा गया, था।

मुद्रा स्फीति नियंत्रित करने, कृषि का विकास करने, यातायात व संचार के साधनों का विस्तार करने, विद्युत उत्पादन बढ़ाने, उत्पादन क्षमता बढ़ाने, आर्थिक विषमता दूर करने, खाद्यान्न संकट दूर करने आदि पर विशेष ध्यान दिया गया। वास्तविक उपलब्धि लक्ष्य से अधिक रही। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय आय में 25 प्रतिशत वृद्धि करने, लोगों का जीवन स्तर उन्‍नत करने, तेज गति से औद्योगीकरण करने, बुनियादी तथा भारी उद्योगों का पर्याप्त विकास करने, रोजगार के अवसर बढ़ाने, आय तथा धन की असमानता दूर करने और पूँजी निवेश की दर बढ़ाने पर बल दिया गया।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना में वास्तविक उपलब्धि लक्ष्य से कम रही | तीसरी पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय आय में 30 प्रतिशत तथा प्रतिव्यक्ति आय में 17 प्रतिशत वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था| खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने हेतु कृषि उत्पादन बढ़ाने, बुनियादी उद्योगों की उत्पादन क्षमता बढ़ाने, रोजगार के अबसरों में वृद्धि करने, आय तथा धन की असमानता करने एवं आर्थिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण आदि बातों पर जोर दिया गया था।

इस योजना की उपलब्धियाँ भी लक्ष्य से कम रही | इस योजना की अवधि में 1962 में चीन के साथ तथा 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध का सामना करना पड़ा अतः अर्थव्यवस्था गड़बड़ां गई। चतुर्थ पंचवर्षीय योजना में कृषि उत्पादन में 5% वार्षिक तथा औद्योगिक उत्पादन में 8% वार्षिक वृद्धि का लक्ष्य रखा गया था। स्थिरता के साथ विकास करने तथा आत्मनिर्भरता प्राप्त करने पर बल दिया गया था।

इसके अलाबा कीमत स्तर में स्थायित्व लाने, जीवन स्तर में सुधार करने, निर्यात बढ़ाने, रोजगार के अवसर बढ़ाने, पिछड़े क्षेत्र का विकास कर क्षेत्रीय विषमता दूर करने, सार्वजनिक क्षेत्र का विकास करने तथा समाज में आर्थिक समानता व न्याय की स्थापना करने की बात भी कही गई थी।इस योजना की उपलब्धियाँ लक्ष्य से कम रहीं | कीमतों में भी वृद्धि हो गई |

पाँचवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्रीय आय में 5% वार्षिक वृद्धि करने, उत्पादक रोजगार के अवसर बढ़ाने, न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम (शिक्षा पेयजल, ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा, पौष्टिक भोजन, भूमिहीन श्रमिकों के लिये मकान बनाने हेतु भूखण्ड ग्रामीण सड़कों, ग्रामीण विद्युतीकरण, गंदी बस्तियों का सुधार आदि) कृषि एवं जन उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाने, निर्धन वर्ग को उचित मूल्य पर अनिवार्य उपभोग की वस्तुएँ उपलब्ध कराने|

निर्यात संवर्द्धन, आयात प्रतिस्थापन, न्यायपूर्ण कीमत मजदूरी नीति लागू करने, अनावश्यक उपभोग पर कड़ा नियंत्रण लगाने तथा सामाजिक आर्थिक, व क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने के लक्ष्य रख गये थे, किन्तु इस योजना की उपलब्धियाँ भी लक्ष्य से कम रहीं।

छठी पंचवर्षीय योजना में गरीबी तथा बेरोजगारी की व्यापकता में लगातार कमी. करने, आधुनिकीकरण को बढ़ावा देने, आर्थिक विकास दर में वृद्धि करने उत्पादकता व कुशलता बढ़ाने, लोगों के जीवन की गुणवत्ता में न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम के माध्यम से सुधार करने; आय तथा सम्पत्ति की असमानता दूर करने, जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने आदि बातों के लक्ष्य रखे गये थे। इस योजना में निर्धनता तथा बेरोजगारी दूर करने के महत्वपूर्ण कार्यक्रम भी अपनाये गये थे |

उपलब्धियाँ लक्ष्य से कम ही रहीं। सातवीं पंचवर्षीय योजना, आठवीं पंचवर्षीय योजना तथा नवीं प्रंचवर्षीय योजना में भी इसी प्रकार के लक्ष्य रखे गये किन्तु इनमें भी उपलब्धियाँ लक्ष्य से कम रही । दसवीं पंचयर्षीय योजना के 5 करोड़ लोगों को रोजगार के अवसर देने, सकल घरेलू उत्पाद में 8 प्रतिशत वार्षिक की दर से वृद्धि करने गरीबी अनुपात को कम करके 21 प्रतिशत तक लाने, साक्षरता प्रतिशत बढ़ाकर 75 प्रतिशत करने आदि पर बल दिया गया है। इस योजना में समानता तथा सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। 

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