प्रस्तावना –
नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को देन के बारे में पढ़ेंगे |
जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को देन
जैन धर्म की भारतीय संस्कृति को देन भारतीय संस्कृति को जैन धर्म की अपनी अनूठी देन रही है | इसके प्रमुख बिन्दु निम्नलिखित हैं-
जैन धर्म की साहित्यिक देन–
विद्वानों ने प्रचार के लिए धार्मिक ग्रन्थों की जनसाधारण की भाषा में लिखा है। दक्षिण भारत में कनन्नड़, तमिल, तेलगू भाषाओं में धर्म ग्रन्थ लिखे गये। तमिल साहित्य की प्रसिद्ध कविता जवक चिन्तामणी जैनियों की देन है। पंचतत्र पर जैन विद्वानों ने आलोचनात्मक ग्रन्थ लिखे हैं। व्याकरण काव्य कोष, रचना शास्त्र, कथाएं, गणित आदि विभिन्न विषदों पर जैन विद्वानों ने रचन’एँ लिखी है। ग्यारहवीं सदी में हेमचन्द्र सूरि नमक विद्वान ने संस्कृत और प्राकृत में अनेक ग्रन्थ लिखे।
जैन धर्म की सामाजिक देन–
जैन धर्म के अनेक सिद्धान्त समाज के लिए लाभदायक सिद्ध हुए। सामाजिक समानता, ऊँच नीच को भावना का तिरस्कार जैसी भावनाएँ जैन धर्म के माध्यम से उभरी | निर्धनों के प्रति दयाभाव, स्त्रियों की दशा में सुधार के लिए प्रयास जैसे कार्यों से जैन धर्म में उल्लेखनीय कार्य किया।
दार्शनिक देनः–
दर्शन के क्षेत्र में जैन धर्म के दो प्रमुख सिद्धान्त थे 1. स्याय वाद, 2. अनेकान्त कद। स्यायवाद में सत्य के भिन्न-भिन्न रूपों के सम्बन्धों में जानकारी मिलती है सत्य के केवल एक रूप को देखने पर सत्य के विषय में हो एक धारणा रखी जाती है किन्तु सत्य के अनेक रूप होते हैं इसलिए सत्य के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। अनेकान्तवाद में जीव के भिन्न-भिन्न आत्माओं का वास बताया गया है। आत्माएं पदार्थ से विभिन होती हैं और जिस शरीर में वह रहती है उसके अनुसार उसका आकार और स्वरूप परिवर्तित होता है। आत्माएं पुनर्जन््म और कार्य के अधीन होती है।
राजनैतिक प्रभाव–
जैन धर्म के सिद्धान्तों ने राजनैतिक स्थिति को भी प्रभावित किया। अहिंसा के सिद्धान्त से प्रभावित राजाओं ने जैन धर्म अपनाकर यथासम्भव शान्तिप्रिय नीति का पालन किया कुछ विद्वानों का मानना है कि इस नीति से राजाओं की शक्ति में कमी आई और वे आक्रमणकारियों का सामना करने का सामर्थ्य खो बैठे | |
अहिंसा का सिद्धान्त–
अहिंसा का सिद्धान्त यद्यपि जैन धर्म का भौतिक सिद्धान्त नहीं था किन्तु इसका जितना प्रसार और फलन जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा किया गया उतना अन्य किसी धर्म के द्वारा नहीं किया गया इसके अनुसार किसी व्यक्ति को मन, कर्म और वाणी से किसी जीवधारी को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए। यह सिद्धान्त अत्यधिक लोकप्रिय हुआ और इसे बौद्धों तथा हिन्दुओं ने भी अपना लिया।