प्रस्तावना –
नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे निजीकरण, निजीकरण के पक्ष में तर्क, निजीकरण के विपक्ष में तर्क, जीवन स्तर पर कुप्रभाव, वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण अर्थ एवं विशेषताएँ, वैश्वीकरण के उद्देश्य या लाभ के वारे में बात करेंगे |
निजीकरण
निजीकरण का आशय-
उस प्रक्रिया से है जिसमें राज्य तथा सार्वजनिक क्षेत्र की आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी कम की जाती है। निजीकरण का उद्देश्य उद्योगों के प्रबन्ध व संचालन की निजी क्षेत्र को दूट देना और सार्वजनिक क्षेत्र के लिए किए जाने वाले आरक्षण को समाप्त करना है। दूसरे शब्दों हैं, अंतराष्ट्रीयकरण की नीति लागू करना ही निजीकरण है। निजीकरण की प्रक्रिया का आरम्भ 1979 से – ग्रेट ब्रिटेन में हुआ और इसकी सफलता से प्रभावित होकर 100 से अधिक देशों ने निजीकरण की ओर कदम बढ़ाये हैं। निजीकरण में निम्न बातों पर बल दिया जाता है-
- अंतराष्ट्रीयकरण – करना अर्थात् सरकारी उत्पादक सम्पत्तियों को निजी क्षेत्र को हस्तांतरित करना
- सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की समता पूँजी को निजी पूँजी में परिवर्तित करना या अपनिवेश करना |
- केवल सार्वजनिक क्षेत्र के लिये ही आरक्षित उद्योगों में निजी क्षेत्र को प्रवेश की अनुभति देना।
- सार्वजनिक क्षेत्र को सीमित करना तथा इसके और अधिक विस्तार पर रोक लगाना। इस प्रकार निजीकरण की नीति में लोक उपक्रमों के कार्यक्षेत्र को सीमित करके निजी उद्योगों को उदारवादी लायसेंसिंग नीतियों के अन्तर्गत कार्य करने की विस्तृत सुधिधाएँ प्रदान की जाती है। निजी निगर्मों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आकर्षक सुविधाएँ देकर उनके कार्यक्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाता है। निजीकरण को लोक उपक्रमों की कमियों को दूर करमे बाला एक प्रभावी उपकरण माना गया है।
निजीकरण के पक्ष में तर्क–
निजीकरण के पक्ष में निम्नलिखित तर्क दिये जाते हैं-
- सार्वजनिक क्षेत्र का निराशा जनक कार्य निष्पादन– अभी तक का अनुभव है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम अपनी कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं और थे निरन्तर घाटे के कारण राष्ट्र की अर्थव्यवस्था पर बोझ सिद्ध हुए हैं। अतः निजीकरण को प्रोत्साहन देना आवश्यक प्रतीत होता है। बढ़ते हुए
- बजटीय घाटे को कम करना- भारत का बजटीय घाटा निरन्तर बढ़ने के कारण कीमत स्तर में लगातार वृद्धि होती गई। इस घाटे के बढ़ने के कारणों में एक मुख्य कारण सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के संचालन में घाटा होना भी है। अतः सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के क्षेत्र को संकुचित करना तथा निजी क्षेत्र के उपक्रमों का विस्तार करना आवश्यक समझा गया।
- गैर-विकास व्यय में वृद्धि– भारत में गैरविकास तथा गैर-योजना व्यय निरन्तर बढ़ रहे थे इसलिये देश के सीमित संसाधनों को उपभोगव्यय में लगाने के बजाय उत्पादक-व्यय में लगाना आवश्यक समझा गया | इसके लिये निजी करण को प्रोत्साहन देना उचित समझा गया।
- पूँजी-उत्पाद का उच्च अनुपात- पूँजी की वृद्धि की तुलना में उत्पादन में कम वृद्धि होना उच्च पूँजी उत्पाद अनुपात कहलाता है। पूँजी की मात्रा कम बढ़ाई रही थी। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में तो यह और भी अधिक बढ़ जाने की आशंका थी। इसलिये निजीकरण को प्रोत्साहन देना जरूरी समझा गया। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि निजी करण में लाभ का लक्ष्य प्रमुख होता है इसलिये उसमें हमेशा सही आर्थिक निर्णय लिये जाते हैं, और संसाधनों की बर्बादी रौकने व अधिक कुशलतापूर्वक कार्य निष्पादन पर बल दिया जाता है।
निजीकरण के विपक्ष में तर्क –
निजीकरण के विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये जाते हैं-
निजीकरण असंतुलित विकास-
निजीकरण को बढ़ावा देने से इस बात की कोई गारन्टी नहीं होती है कि सामाजिक उन्नति पर उचित ध्यान दिया जायगा। इसमें तो लाभ के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही कार्य किया जाता है। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि राष्ट्र में हर क्षेत्र का संतुलित बिकास नहीं हो पाता। सभी क्षेत्रों का उपयुक्त विकास हो इसके लिये सार्वजनिक क्षेत्र अपरिहार्य माना गया है
निजीकरण जीवन स्तर पर कुप्रभाव-
निजीकरण में लोगों के जीवन स्तर को उन्नत करने पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। केवल लाभ को सर्वोपरि माना जाता है। अर्थव्यवस्था के संतुलित, समुचित तथा वास्तविक विकास के लिये यह उचित नहीं है।
निजीकरण अधो-संरचना के विकास की उपेक्षा-
निजी क्षेत्र देश की आर्थिक तथा सामाजिक आधारभूत संरचना के विकास में रुचि नहीं लेता है क्योंकि इसमें उतना अधिक लाभ प्राप्त नहीं होता है। विश्व बैंक के द्वारा कराये गये एक सर्वेक्षण से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई है कि 1991-92 में आधारभूत संरचना के विकास पर सकल घरेलू उत्पाद का 5.4 प्रतिशत भाग खर्च होता था जो आज घटकर 4.5 प्रतिशत ही रह गया है। जाय और उत्पादन अनुपात से अधिक बढ़े तो उचित है | देश में पूँजी-उत्पाद अनुपात में लगातार वृद्धि हो,
निजीकरण राज्य के एकाधिकार को क्षति –
(सार्वजनिक क्षेत्र के. निराशा जनक कार्य निष्पादन को दूर करने के लिये निजी क्षेत्र के एकाधिकार को बढ़ावा देना अर्थव्यवस्था मैं सुधार का एक न्यायसंगत कदम नहीं माना जा सकता। राज्य का एकाधिकार निजी एकाधिकार की तुलना में सदैव अच्छा माना जाता है क्योंकि उसके पीछे सामाजिक न्याय तथा संतुलित विकास का लक्ष्य” निहित रहता है आर्थिक सुधार कार्यक्रमों में निजीकरण के सम्बन्ध में नीति-गत निर्णय निजीकरण के सम्बन्ध में आर्थिक सुधारों में निम्मलिखित नीतिगत निर्णय विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं
निजीकरण सार्वजनिक क्षेत्र को सीमित करना-
आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के अन्तर्गत सार्बजनिक क्षेत्र को काफी सीमित कर दिया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के लिये आरक्षित उद्योगों की संख्या घटाकर तीन कर दी गई है। अर्थात् रेल यातायात आणविक खनिज तथा आणविक ऊर्जा उद्योग ही अब सार्वजनिक क्षेत्र के लिये आरक्षित हैं।
निजीकरण अपनिवेश–
अपनिवेश का. आशय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में विनियोजित पूँजी को निजी क्षेत्र को बेचना है। अर्थात् सरकारी निवेश को कम करना है। समता पूँजी में . निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के अंश जनता तथा कर्मचारियों को बेचे जा रहे हैं। लगभग 30,000 करोड़ रुपये से अधिक कां अपनिवेश अभी तक किया जा चुका है।
निजीकरण संस्थागत साख में वृद्धि करना–
निजी क्षेत्र के उपक्रमों को राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं से अधिक साख प्रदान करने पर नई नीति में अधिक बल दिया गया है। नवीन औद्योगिक लायसेंस नीति के अनुसार अब वित्तीय संस्थाएँ ऋण को समता पूँजी में परिवर्तित करने की शर्त नहीं रखेगी। इन निर्णयों के फलस्वरूप निजी क्षेत्र की कार्यकुशलता तथा उत्पादकता में वृद्धि में करना
वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण अर्थ एवं विशेषताएँ-
“वैश्वीकरण”, “विश्व व्यापीकरण” तथा -“भूमण्डलीकरण’” परस्पर पर्यायवाची हैं। विश्वव्यापीकरण वस्तुतः व्यापारिक क्रिया-कलापों, विशेषकर विपणन सम्बन्धी क्रियाओं का अन्तर्राष्ट्रीयकरण करना है जिसमें सम्पूर्ण विश्व बाजार को एक ही क्षेत्र के रूप में देखा जाता है।
दूसरे शब्दों में, विश्वव्यापीकरण वह प्रक्रिया है जिसमें विश्व बाजारों के मध्य पारस्परिक निर्भरता उत्पन्न होती है और व्यापार देश की सीमाओं में प्रतिबन्धित न रहकर विश्व व्यापार में निहित तुलनात्मक लागत लाभ दशाओं का विदोहन करने की दिशा में अग्रसर होता है।
नई आर्थिक नीति में विश्वव्यापीकरण का घटक विभिन देशों के मध्य प्रशुल्क एवं अन्य नियन्त्रणात्मक अवरोधों को समाप्त करके घरेलू उद्योगों को विदेशी वस्तुओं की कड़ी प्रतिस्पर्द्धा योग्य बनाने था प्रयास है। स्वतंत्रता के ब्राद चार दशकों की संरक्षणात्मक नीति ने भारतीय उद्योगों को गुणात्मक रूप से कमजोर बनाया है। इसी कारण नई आर्थिक नीति में यह आवश्यक समझा गया कि विश्व बाजार में अपना स्थान बनाने के लिए भारतीय व्यवसाय का अन्तर्राष्ट्रीय मानदण्डों के आधार पर विश्वव्यापीकरण कर दिया जाय |
विश्वव्यापीकरण के प्रमुख तत्व या विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं”-
- एक देश से दूसरे देश में स्थायी या अस्थायी रूप से लोगों का प्रवास।
- राष्ट्रों के बीच भुगतानों के साधनों के आदान-प्रदान को बढ़ावा देना।
- वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन बढ़ाने के लिये एक देश से दूसरे देश में पूँजी के प्रवाह को प्रोत्साहन देना।
- विभिन्न देशों. के बीच आयात-पभिर्यात टेकनॉलाजी का आदान-प्रदान करना।
- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तथा प्रिन्ट, का विस्तार करना ।
- बस्तुओं तथा सेवाओं के विदेशी व्यापार में वृद्धि करना |
- विभिन्न देशों के बीच वित्तीय प्रवाह को प्रोत्साहन देना ।
वैश्वीकरण के उद्देश्य या लाभ-
विश्वव्यापीकरण के प्रमुख उद्देश्य या लाभ निम्न प्रकार बताये गये हैं
वैश्वीकरण अकुशलता दूर करना –
उद्योगों तथा फर्मों की तू करना वैश्वीकरण का मुख्य ध्येय है। वैश्वीकरण के अभाव में उद्योगों तथा फर्मों में जो निष्क्रियता आ गं थी वह अब दूर हो जायगी।
वैश्वीकरण उत्पादकता में वृद्धि–
वैश्वीकरण से अल्पविकसित राष्ट्रों मे संसाधनों के आबंटन में सुधार आएगा पूँजी-उत्पाद अनुपात कम होगा तथा श्रम की उत्पादकता बढ़ेगी। आधुनिकतम तकनॉलॉजी तथा पूँजी का प्रवाह बढ़ेगा जिससे निर्मित माल की कीमतें कम होगी। साथ ही, कृषि में व्यापार की शर्तों में सुधार होगा।
वैश्वीकरण–
वैश्वीकरण से विदेशी प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा मिलेगा जिससे उत्पाद की गुणवत्ता बढ़ेगी और कीमतों में कमी आएगी। अनार्थिक आयात-प्रतिस्थापन धीरे-धीरे समाप्त हो जायगा। सस्ते आयात से (विशेष रूप से पूँजीगत माल) पूँजी-उत्पाद अनुपात घटेगा।
बैंकिंग तथा वित्तीय क्षेत्र में सुधार–
वैश्वीकरण के अन्तर्गत विदेशी बैंकों के आने से देश में बैंकिंग तथा वित्तीय क्षेत्र की कुशलता में सुधार होगा।
वैश्वीकरण सम्बन्धी नीतिगत निर्णय-
समता पूँजी में विदेशी भागीदारी बढ़ाना-1991 के पूर्व समतापूँजी में विदेशी भागीदारी की अधिकतम सीमा 40 प्रतिशत तक स्वीकृत थी। अब उच्च तकनॉलॉजी तथा उच्च विनियोग वाले प्राथमिकता उद्योगों में समता पूँजी में विदेशी भागीदारी 51 प्रतिशत तक स्वीकृत कर दी गई है। सरकार ने निम्नलिखित निर्णयों की घोषणा की है
- उच्च प्राथमिकता उद्योग में विदेशी तकनीकी सहयोग की स्वीकृति।
- विदेशी तकनीशियनों को किराये पर लेने की छूट।
- देश में विकसित घरेलू तकनॉलॉजी के विदेश में परीक्षण की छूट ।
- विदेशी विनियोग तथा सहयोग प्रस्तावों को अन्तिम रूप देने के लिये विदेशी विनियोग प्रस्ताव मण्डल की स्थापना।
रुपये की आंशिक परिवर्तनशीलता-
पहले विनिमय नियंत्रण प्रणाली के अन्तर्गत निर्यातकों को अपने द्वारा अर्जित विदेशी विनिमय भारतीय रिज़र्व बैंक को प्राप्त करना पड़ता था और निश्चित दर पर रुपये में प्राप्त करना पड़ता था। इसी प्रकार को भी निश्चित दर पर रुपये के बदले विदेशी विनिमय खरीदना पड़ता था। अब पुरानी विनिमय प्रणाली कें स्थान पर उदारण विनिमय प्रबन्ध प्रणाली अपनाई गई है। तदनुसार, रुपये का मूल्य बाजार में माँग ब पूर्ति की शक्तियों के आधार चर निर्धारित होती है।
निर्यातकर्ता अब स्वतंत्रतापूर्बक खुले बाजार में विदेशी मुद्रा बेच सकते हैं और ध्वतंत्रतापूर्वक इसे खरीद सकते हैं। इसे रषमे की स्वतंत्र परिवर्तशीलता कहते हैं, किन्तु यह स्वतंत्रता उस मुदा को खरीदने बेचने के सम्बन्ध में है जो वस्तुओं तथा सेवाओं क निर्यात ले अर्जित की गई हो अथवा वस्तुओं थ सेवाओं के आयात के लिये प्रयुक्त की गई हो विदेश में समत्तियों के क्रव-विक्रव के लिये खुले बाजार से विदेशी मुद्रा खरीदने. की स्वतंत्रता नहीं है।
आर्थिक सुधारों (नई आर्थिक नीति) के पक्ष में तर्क-
नई आर्थिक नीति के पक्ष में उसके समर्थक निम्नलिखित तर्क देते हैं-
आर्थिक विकास की दर-
नियोजन के चार दशक की अवधि में सारे प्रयासों के उपरान्त भी हमारी सकल घरेलू उत्पादन (5707) दर 3.8 प्रतिशत वार्षिक ही रही तथा प्रतिव्यक्ति आय वृद्धि दर 1.8 प्रतिशत वार्षिक थी। अन्य एशियाई देशों (सिंगापुर, मलेशिया, हॉगकांग, दक्षिण कोरिया आदि) की तुलना में भारत की प्रगति निराशाजनक रही है। अतः आर्थिक सुधारों को लागू करना आवश्यक समझा गया।
ओद्योगिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धात्मकत्ता लाना-
विश्वव्यापी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करने के लिये औद्योगिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्दधात्मकता का विकास करना जरूरी है । यह आर्थिक सुधारों के माध्यम से ही संभव है। वर्तमान में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत का भाग 0.6 प्रतिशत ही है। आर्थिक सुधारों के माध्यम से भारतीय उद्योगों को वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में अपना स्थान बनाने के लिये प्रोत्साहित करना जरूरी है।
गरीबी तथा विषमता में कमी करना1951 से 1991 तक भारत में व्याप्त गरीबी तथा आय व धन के वितरण में विषमता को दूर करने के सारे प्रयास बुरी तरह से विफल रहे हैं। अतः इस स्थिति से छुटकारा पाने के लिये नई आर्थिक नीति अपनाना आवश्यक प्रतीत हुआ जिसमें रोजगार के प्रर्याप्त अवसर देने और गरीबी एवं विषमता समाप्त करने पर बल दिया जायगा। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कार्यकुशलता बढ़ाना नई नीति में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कार्यकुशलता तथा लाभदायकता बढ़ाने के लिये प्रभावकारी उपाय किये जायेंगे।
विदेशी तकनीक का लाभ–
चूँकि विदेशी तकनीक के आयात-प्रतिबन्धों को उदार एवं मुक्त बना दिया गया है इसलिए विदेशी तकनीक लाभ भारतीय उद्योगों को मिलने लगा है तथा उत्पादन की गुणवत्ता में सुधार होने लगा है।
विदेशी व्यापार का सरलीकरण–
आयात-निर्यात की निषिद्ध सूचियों में भारी कटौती होने से विदेशी व्यापार का सरलीकरण हुआ है। इससे बिदेशी व्यापार को अधिक प्रोत्साहन मिला है।
उद्योगों का विस्तार एवं विविधीकरण-
(भारत सरकार द्वारा एकाधिकार एवं प्रतिननन्धात्मक व्यापार व्ययहार कानून में संशोधन करने से अब फर्मों को बिना पूर्व अनुमति के अपनी क्षमता का विस्तार करने एवं क्रियाओं का विविधीकरण करने की स्वतंत्रता प्राप्त हो गई है।
निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन–
नई आर्थिक नीति में निजी क्षेत्र में विभिन्न उद्योगों में विनियोग बढ़ाने पर अधिक जोर दिया गया है। इससे देश की आर्थिक विकास की दर में वृद्धि होगी।
छोटे उद्योगों का विकास–
नई आर्थिक नीति में लघु उद्योगों के विकास के लिये आवश्यक सुविधाएँ देने पर बल दिया गया है ताकि लोगों को रोजगार के अधिक अवसर दिये जा सर्के और गरीबी एवं आर्थिक विषमता में कमी की जा सके।
वित्तीय घाटा कम करना-
बजट में वित्तीय घाटा कम के के लिये नई आर्थिक नीति में प्रभावकारी कदम उठाने की बात कही गई है। इससे सामान्य कीमत स्तर पर नियंत्रण लाया जा सकेगा। ”
भुगतान असंतुलन कम करना-
भारत मे भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता की स्थिति कई वर्षों से जारी है। अतः नई आर्थिक नीति में भुगतानअसंतुलन को सुधारने के लिये आवश्यक कदम उठाये जायेंगे ताकि भारतीय आर्थिक प्रणाली के प्रति विश्व स्तर पर विश्वास की स्थिति निर्मित हो सके। निर्यात-संवर्द्धन के लिये प्रभावी वातावरण निर्मित किया जायगा और अनावश्यक आयात पर रोक लगाई जायगी। इससे भुगतान संतुलन की प्रतिकूलता काफी सीमा तक दूर हो जायगी। हि ।
बढ़ती हुई कीमतों पर नियंत्रण-
नई आर्थिक नीति में ऐसे अनेक प्रभावकारी उपाय किये जायेंगे जिसके फलस्वरूप बढ़ती हुई कीमतों पर नियंत्रण लाया जा सके | इन उपायों में, घाटे की वित्त व्यवस्था पर रोक, सार्वजनिक व्यय पर नियंत्रण बेहतर आपूर्ति एवं उत्पादन, उत्तम प्रबन्धन आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
बाजार का विस्तार-
नई नीति के फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारत के माल की अधिक खपत होने की संभावनाएँ बढ़ गई हैं। भारत अधिक वस्तुओं तथा सेवाओं का निर्यात कर सकेगा। ‘
विदेशी विनियोग के प्रवाह को प्रोत्साहित करना-
आर्थिक नीति में विदेशी विनियोग तथा विदेशी तकनीकी सहयोग को प्रोत्साहन दिया जायगा ताकि देश के संसाधनों का सर्वश्रेष्ठ उपयोग हो सके तथा नवीनतम तकनॉलॉजी अपनाकर उत्पादन की गुणवत्ता बढ़ाई जा सके और लागत कम की जा सके। इस प्रकार नई आर्थिक नीति लागू करने से हमारी आर्थिक विकास दर में वृद्धि होगी तथा अर्थव्यवस्था में व्याप्त मंदता दूर होगी।
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