भारतीय अर्थव्यवस्था

भारतीय अर्थव्यवस्था |आर्थिक सुधार का अर्थ | कारण |INDIAN ECONOMY |MP BOARD NET| 2024

प्रस्तावना –

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2 भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMY)
2.5 भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुधारों की आवश्यकता या कारण –

नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे भारतीय अर्थव्यवस्था |आर्थिक सुधार का अर्थ | कारण | INDIAN ECONOMY के वारे में बात करेंगे |

भारतीय अर्थव्यवस्था (INDIAN ECONOMY) 

आर्थिक सुधार का मूल उद्देश्य भारत के लोगों की जीवन की गुणवत्ता में तेजी से एवं स्थिरता से सुधार लाना है।

 -आर्थिक सुधार के सूत्त सूत्र भारत सरकार 

भारतीय अर्थव्यवस्था-

भारतीय अर्थव्यवस्था आर्थिक सुधार सम्बन्धी रणनीति की पृष्ठभूमि  ” भारत को स्वतंत्रता 15 अगस्त, 1947 को मिली थी। उस समय खाद्यान एवं अनेक उपभोक्ता बस्तुओ का अभाव था। औद्योगिक उत्पादन एवं औद्योगिक इकाइयों की मात्रा अत्यन्त ही सीमित थी।

औद्योगिक संरचना के लिए आवश्यक सत्यों का अभाव था। सामाजिक सुविधाएँ भी केवल नाममात्र की थीं। देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि ही था।  अतः सरकार ने 1 अप्रैल 1951 से आर्थिक नियोजन की नीति अपनायी जिसके अन्तर्गत पंचवर्षीय योजनाएँ प्रारम्भ की गई।

उद्योगों की स्थापना के लिए नई लाइसेंस नीति अपनाई गई तथा आवश्यक संरखना का विकास देश के हितों को ध्यान में रखकर किया गया | विदेशी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से भी ऋण व सहायता प्राप्त की गई। देश में सार्वजनिक उद्योगों के विकास पर बल दिया गया। पूँजी भी आमंत्रित की गई, लेकिन उसे देश के नियमों के अन्तर्गत ही विकसित होने का अवसर दिया गया। 

उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन एवं वितरण पर प्रतिबन्ध लगाये गये । कृषि उत्पादन को बढ़ाया देने के लिए कृषि में यन्त्रीकरण की नीति अपनाई गई। हा ह इन सबके परिणामस्वरूप देश का विकास हुआ। अनेक आधारभूत उद्योग स्थापित हुए जिससे न कैवल औद्योगिक उत्पादन ही बढ़ा, परन्तु औद्योगिक बस्तुओं का निर्यात भी किया जाने लगा। कृषि के क्षेत्र में अच्छा विकास हुआ।

खाद्याननों में आत्मनिर्भरता-सी आयी। सामाजिक क्षेत्र में भी जनसाधारण को अनेक सुविधाएँ (जैसे स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बीमा, सड़कें, परिवहन आदि) मिलने लगीं। परन्सु इस सबके होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में हमारी स्थिति अच्छी नहीं रही और औद्योगिक उत्पादन की गुणवत्ता अन्तर्राष्ट्रीय स्तर से निम्न रही।

सार्वजनिक क्षेत्र की अधिकांश इकाइयाँ पूँली पर उचित प्रतिफल देने में असमर्थ रहीं। आयात निर्यात से अधिक रहे | अतः विदेशी मुद्रा की कमी सदा ही बनी रही । इस कारण जुलाई 1991 से आर्थिक नीति में सुधार की रणनीति या कार्यक्रम अपनाया गया। 

भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुधार का अर्थ-

आर्थिक सुधारों का आशय उन उपायों या सुधार कार्यक्रमों से है जो भारतीय अर्थव्यवस्था की कार्य क्षमता, प्रतिस्पर्दात्मकता तथा लाभदायकता के स्तर को उन्‍नत करने के उद्देश्य से सन्‌ 1991 से लाग किये गये हैं। इन आर्थिक सुधारों को नई आर्थिक नीति कहा जाता है|

जिसमें राष्ट्रीय आय प्रतिव्यक्ति आय तथा जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने का ध्यान रखा गया है। अर्थात्‌ उद्योग, व्यापार, वित्त एव प्रशुल्क आदि से सम्बन्धित आर्थिक नीतियों की नबीन व्याख्या ही आर्थिक सुधार या नई आर्थिक नीति कहलाती है। . 

भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुधार (नई आर्थिक नीति) के उद्देश्य-

  • आर्थिक सुधारों के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार हैं
  • भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रतिस्पर्दधात्मकबनाना। 
  • उत्पादन इकाइयों को अधिक कुशल बनाना एवं उनकी उत्पादकता के स्तर को ऊँचा बनाना। 
  • पिछले लाभों को सुदृढ़ बनाना। 
  • भारत के स्वयं के विकास के लिये वैश्विक संसाधनों का उपयोग करना । 

भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक सुधारों की आवश्यकता या कारण

  • भारत में आर्थिक सुधारों की आवश्यकता निम्न कारणों से महसूस की गई-

भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की विफलता

नियोजन काल में और विशेषतः 1951 से 1990 तक भारत के आर्थिक विकास में सार्वजनिक क्षेत्र को महत्वपूर्ण भूमिका सौंपी गई थी तथा औद्योगीकरण के लिये उसे सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई थी ताकि गरीबी दूर हो सके और आर्थिक विकास की दर में वृद्धि हो सके, किन्तु परिणाम निराशाजनक रहा। अतः विवश होकर सरकार क्ले अपनी नीति में परिवर्तन करना पड़ा तथा निजी क्षेत्र को महत्व देना पड़ा।

भारतीय अर्थव्यवस्था में भुगतान असंतुलन की समस्या –

भारत का भुगतान संतुलन पिछले कुछ वर्षों से निरन्तर प्रतिकूल हो रहा था। सन्‌ 1980-81 में भुगतान असंतुलन (घाटा) 2214 करोड़ रुपये था जो 1990-91 में बढ़कर 17,367 करोड़ रुपये. हो गया। इस घाटे की पूर्ति के लिये सरकार को अन्य देशों से ऋण लेना पड़ा।

1980-81 में राष्ट्रीय घरेलू उत्पाद का 12 प्रतिशत ऋण था जो 1990-91 में बढ़कर 23 प्रतिशत हो गया । इस प्रकार भारत ऋणग्रस्तता के जाल में फँसता चला गया | इससे भारत के प्रति अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक तथा वित्तीय संस्थाओं का विश्वास कम होने लगा | अठ: आर्थिक सुधारों की नीति अपनाना अनिवार्य-सा हो गया।

भारतीय अर्थव्यवस्था में विदेशी विनिमय निधि में कमी-

जून, 1991 में भारत का विदेशी विनिमय कोष सबसे नीचे के स्तर पर आकर 2400 करोड़ रुपये रह गया था। इससे भारत में विदेशी विनिमय संकट उत्पन्न हो गया | स्थिति यहाँ तक पैदा हो गई कि हम विदेशी ऋण की किश्तों का समय पर भुगतान के दोषी होने लगे। दो सप्ताह के आयात का भुगतान करने के लिये भी हमारे पास पर्याप्त विदेशी मुद्रा नहीं थी तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में हमारी साख-योग्यता कम हो रही थी।

अनिवासी भारतीयों ने अपनी जमा राशियाँ एकदम निकालना शुरू कर दिया तथा संकट और भी अधिक गहरा हो गया | नौबत यहाँ तक आ गई कि तत्कालीन चन्द्रशेखर सरकार भारत का सोना विदेशों में गिरबी रखकर दूसरे देशों से उधार लेकर अपने ऋणों का भुगतान करने के लिये मजबूर हो गई।

इस विकट परिस्थिति में अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के कारण भारत सरकार को उदारीकरण तथा निजीकरण के रूप में आर्थिक सुधारों की नई नीति अपनानी पढ़ी ।

भारतीय अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों का बढ़ता हुआ घाटा –

अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम घाटे में चल रहे थे। उनमें कुशलता का अभाव था | इस समस्या का निवारण करने के लिए नई आर्थिक नीति अपनाना तथा निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना आवश्यक समझा गया।

भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश ढाँचे में परिवर्तन

मुद्रा स्फीति में वृद्धि होने के कारण निवेश का प्रवाह विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन में अधिक बढ़ने लगा तथा आवश्यक आवश्यकता की वस्तुओं के उत्पादन की उपेक्षा होने लगी । फलतः विनियोग या उत्पादन के क्षेत्रों में बिकृति दी असंतुलन होने लगा। इस स्थिति पर विजय प्राप्त करने के लिए नई आर्थिक नीति अपनाना जरूरी समझ गया

भारतीय अर्थव्यवस्था में उद्योगों को प्रतिस्पर्दधात्मक बनाना

संरक्षण वादी नीति का अनुचित लाभ उठाकर भारतीय उद्योगों ने न तो की किस्म में उल्लेखनीय सुधार किया और न ही लागत में कमी का प्रयास किया। फलस्वरूप, वे विदेश प्रतिस्पर्दधा में टिक सकने की स्थिति में नहीं रहे। अतः संरक्षण समाप्त कर उद्योगों ,को बनाना व किस्म में सुधार करना आवश्यक समझा गया। इसलिए आर्थिक सुधार की नीति अपनाने पर बल दिया गया।

भारतीय अर्थव्यवस्था में बंधी सहायता का अधिक होना-

भारत को विदेशों से प्राण सहायता में लगभग दो तिहाई भाग बंधी सहायता के रूप में प्राप्त हुआ | बंधी सहायता का आशय यह है कि जिस उद्देश्य के लिए सहायता दी जाए उसी में उसे खर्च करना जरूरी है। अतः भारत आर्थिक विका३ के लिए विदेशी सहायता का उपयोग अपनी इच्छा तथा प्राथमिकता के अनुसार नहीं कर सका। अत: आर्थिक नीति में परिवर्तन करना आवश्यक समझा गया।

भारतीय अर्थव्यवस्था में जन सामान्य के जीवन स्तर में गिरावट

देश में मुद्रा स्फीति बढ़ने से जन सामान्य की क्रयशक्ति में कमी आ गई तथा उपभोग व्यय में वृद्धि होने लगी। परिणाम स्वरूप आम जनता के जीवन स्तर में गिरावट होने लगी। अतः आर्थिक नीति में परिवर्तन आवश्यक समझा गया।

भारतीय अर्थव्यवस्था में खाड़ी संकट-

1990-91 में खाड़ी संकट की वजह से अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में पेट्रोल की कीमतों में तेजी से वृद्धि होने लगी। इससे खाड़ी देशों को भारत से किये जाने वाले निर्यात प्‌. प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और हमारा भुगतान असंतुलन अधिक प्रतिकूल हो गया। 

भारतीय अर्थव्यवस्था में वित्तीय घाटा –

सन्‌ 1980-81 में भारत का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 5.4 प्रतिशत आँका गया था, जो 1991 में बढ़कर 8.4 प्रतिशत हो गया। इस घाटे की पूर्ति करने के लिये हमें भारी मात्रा में विदेशों से ऋण लेना पड़ा जिस कर चुकाये जाने वाले ब्याज का भार बढ़ने लगा।

पहले सरकारी व्यय का 10 प्रतिशत भाग ब्याज के रूप में जाता था जो 1991 में बढ़कर 30 प्रतिशत तक पहुँच गया । इस प्रकार हमारा देश ऋण ग्रस्तता के चंगुल में फैसता चला गया। इस संकट से बाहर आने के लिये भारत सरकार विश्व बैंक तथा अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रास गई और 7 बीलियन डॉलर ऋण देने का अनुरोध किया |

इस बार भी विश्व बैंक तथा अम्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत सरकार से यही रट लगाई कि वह अपनी अर्थव्यवस्था को ठीक करने हेतु आर्थिक सुधार के कार्यक्रम लागू करे।कीमतों में वृद्धि- सन्‌ 1956 से 1991 तक लगातार सामान्य कीमत सह में वृद्धि होती चली गई जिसके लिये निम्नलिखित घटक उत्तरदायी हैं-

  1. कृषि कथा उद्योगों के विकास की गति तेज करने के लिये सरकार द्वारा अत्यधिक व्यय करना ।
  2. गैर-विकास  व्यय में अत्यधिक वृद्धि होना ।

 इन सब कारणों से धोक मूल्यों में 12 प्रतिशत की दर पर औसत वृद्धि हो गई और सरकार को अपने उ्यय में कमी करने के लिये गम्भीर होना पड़ा। 

इन सब ब्रातों के परिणाम स्वरूप-अपनी आर्थिक नीति में परिवर्तन कर आर्थिक सुधार के कार्यक्रम लागू करने के अलावा भारत सरकार के पास कोई विकल नहीं था। अतः जुलाई, 1991 में नई आर्थिक नीति लागू करने का निर्णय लिया गया। 

भारतीय अर्थव्यवस्था में नई आर्थिक नीति या आर्थिक सुधारों के अंग-

  • 1991 से जो आर्थिक सुधार अपनाये गये उन्हें हम दो श्रेणियों में नाँट सकते हैं
  • संरचना सम्बन्धी (डाँचागत) उपाय
  • स्थिरता सम्बन्धी उपाय

भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचना सम्बन्धी उपायों-

से हमारा आशय उन नीतियों से है जो आर्थिक प्रणाली के पूर्ति पक्ष को सुदृढ़ करती है, जैसे

अ) व्यापार, तकनॉलॉजी तथा विदेशी विनियोग नीति में सुधार |

(ब) औद्योगिक नीति में सुधार। 

(स) वित्तीय सुधार | 

(द) सार्वजनिक क्षेत्र विषयक नीति में सुधार।

भारतीय अर्थव्यवस्था में स्थिरता सम्बन्धी उपायों-

  1. से हमारा आशय उन नीतियों से है जो आर्थिक प्रणाली के माँग पक्ष को सुदृढ़ करती हैं, जैसे-न्याज दर कम करके उदार मौद्रिक नीति अपनाना ।
  2.  रुपये की विनिमय दर में समायोजन करना 
  3. वित्तीय नीति में परिवर्तन करना
  4. उपयुक्त मजदूरी-आय नीति अपनाना |

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