भारतीय आर्थिक चिन्तक | कौटिल्य का आर्थिक चिंतन | गाँधी भारतीय आर्थिक चिंतक दादाभाई नौरोजी का आर्थिक चिन्तन | मोहनदास करमचंद गाँधी आर्थिक चिन्तन | पंडित जवाहर लाल | दीनदयाल उपाध्याय का आर्थिक चिन्तन | BY-MPBOARD.NET

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भारतीय आर्थिक चिन्तक Bhartiye aarthik chintak

 

कौटिल्य (Koutilya) –

भारतीय आर्थिक चिंतकों में कौटिल्य का स्थान महत्वपूर्ण एवं सर्वोपरि है. कौटिल्य को विष्णु गुप्त के नाम से भी जाना जाता है | वे चाणक्य नाम  नाम से भी जाना जाता है | वे चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमंत्री और प्रमुख परामर्शदाता थे। शासन विधि के संचालन के लिए  ही उन्होंने अर्थशास्त्र की रचना की थी|

कौटिल्य की इस पुस्तक में 6000 श्लोक 180 प्रकरण 150 अध्याय 15  आधिकरण इतिहासकार्रों के अनुसार कौटिल्य ने इस पुस्तक की रचना 300 ई. पूर्व में की थी। विद्वानों के मतानुसार, कौटिल्य ने इस पुस्तक में राजनीति धर्म नीति न्याय, प्रशासन आदि सभी विषयों का समावेश  किया गया है|

भारतीय आर्थिक चिन्तक कौटिल्य का आर्थिक चिंतन (Koutilya ka aarthik chintan)- 
भारतीय आर्थिक चिन्तक कौटिल्य का आर्थिक चिंतन (Koutilya ka aarthik chintan)-

भारतीय आर्थिक चिन्तक कौटिल्य का आर्थिक चिंतन (Koutilya ka aarthik chintan)- 

  • कौटिल्य ने अर्थशास्त्र” नामक ग्रंथ में अनेक आर्थिक विचारों की व्याख्या की है। उनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं
  1. अर्थशास्त्र इस शब्द की प्रथम परिभाषा कौटिल्य के ग्रन्थ में मिलती है। उनके अनुसार, अर्थ मनुष्य के जीवन की वृत्ति का आधार है। अर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जो मनुष्य के पूर्ण पृथ्वी के पालन तथा प्राति का विचार करता है। वृत्ति अर्थ कृषि, पशुपालन तथा व्यापार के संयुक्त रूप से होता हऐ।। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में अर्थ के साथ-साथ राजनीति, नीतिशास्त्र, न्यायशास्त्र, सैन्य विज्ञान आदि का भी वर्णन किया गया है।
  2. कौटिल्य के अनुसार राज्य के सभी व्यवसाय को तीन वर्गों में विभाजित किया गया था | कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य | कौटिल्य ने तीनों में कृषि को प्रमुख स्थान दिया गया है, क्योंकि यह समाज को अनाज, पशु, धन, सोना, वन, सम्पदा तथा सस्ता श्रम प्रदान करती है। कौटिल्य के अनुसार, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय कृषि व्यवस्था को अपना सकते थे, परन्तु इनमें ब्राह्मणों को अपने हाथ से हल चलाने की अनुमति नहीं थी। ,
  3. श्रम की महानताकौटिल्य ने श्रमिकों के लिए विस्तार से नियम बताये हैं। उनके अनुसार मजदूरी वस्तु के गुण तथा मात्रा के आधार पर भी होनी चाहिए। अवकाश के दिन में अतिरिक्त वेतन मिलना चाहिए। मजदूरी निर्धारण हेतु न्यूनतम जीवन-निर्वाह मजदूरी का विचार दिया है। उन्हेंने वृद्धावस्था में पेंशन, पुरस्कार इत्यादि के विषय में भी कई दिये हैं।
  4. व्यवसायकौटिल्य ने व्यापार के विकास तथा नियम सम्बन्धी भी विवेचना की है। उनके अनुसार, व्यापार पर राज्य का नियंत्रण आवश्यक है। उस समय स्वतंत्र व्यापार की प्रथा प्रचलित थी। व्यापार की जाने वाली वस्तुओं पर सीमा शुल्क लगाया जाता था। करें से प्राप्त इस आय पर राज्य का अधिकार होता था। व्यापार को विकसित करने के लिए राज्य कानून बनाता था!
  5. परिवहनकौटिल्य के अनुसार परिवहन केसाधरनों के विकास का दायित्व राज्य का है। उस समय परिवहन का प्रमुख साधन नदियाँ तथा भूमि मार्ग थे। विदेशी व्यापार समुद्री मार्ग से होता था। कौटिल्य ने भूमि का मार्ग अधिक लाभप्रद बताया है, क्योंकि यह अधिक सुरक्षित होता है।
  6. राजस्वकरारोपण से राज्य को सबसे अधिक आय प्राप्त होती थी। कर की दर का निर्धारण- हिन्दू धर्म के आदेशों द्वारा किया जाता था। कौटिल्य मे कर प्रणाली के सम्बन्ध में कहा है कि यह ऐसी होनी चाहिए जो प्रजा के लिए भारस्वरूप न हो। राजा को मधुमक्खी के समान कार्य करना चाहिए, जो पौधों को असुविधा पहुँचाये बिना शहद संचय कर लेती हैं। कर वर्ष में एक बार तथा धनी लोगों पर भुगतानकरने की योग्यता के अनुसार लगाने चाहिए। मिश्रित अर्थव्यवस्थाकौटिल्य ने राजकीय तथा व्यक्तिगत उद्योगों का वर्णन किया है।
  • इस प्रकार वह मिश्रित अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे। परन्तु इस व्यवस्था में वह राज्य के अधिक से अधिक योगदान की बात कहते हैं। सेना का समस्त सामान सरकारी कारखाने में बनता था। कौटिल्य ने खदानों पर राज्य का नियंत्रण आवश्यक बताया, क्योंकि इनसे मूल्यवान॑ धातुएँ प्राप्त होती हैं ।
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दादाभाई नौरोजी (Dada bhai nouroji) –

आधुनिक भारतीय अर्थशास्त्र का जनक दादाभाई नौरोजी को कहा जा सकता है इनका जन्म 4 सितम्बर, 1825 को पारसी परिवार में हुआ। सन्‌ 1855 में यह कामा एण्ड कम्पनी के प्रतिनिधि के रूप में इंग्लैण्ड गये सन्‌ 1856 में ही वहाँ लन्‍्दन के कॉलेज में अध्यापक हो गये ।

उन्होंने वहाँ लंदन इंडियन सोसायटी स्थापित की, जिसका उद्देश्य भारतीय छात्रों को संगठित करना और भारत की समस्याओं का अध्ययन करना था । उन्होंने यूरोप के देशों की अर्थव्यवस्था का सूक्ष्म अध्ययन किया था। अपने जीवनकाल में बे महत्वपूर्ण पदों पर रहे।

सन्‌ 1892 में वे हाऊस ऑफ कॉमर्स के सदस्य भी चुने गये । वे भारत में सुधार चाहते थे और उनका अनुमान था कि ब्रिटिश शासन को समझा-बुझाकर भारतीय समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। उन्होंने कई लेख लिखे, लेकिन मुख्य,पुस्तक पावर्टी एण्ड अन ब्रिटिश रूल इन इण्डिया है। जो कि सन्‌ 1901 में लंदन से प्रकाशित हुआ था।

इस पुस्तक में उन्होंने भारत की तत्कालीन निर्धनता, उसके कारण एवं निवारण के उपायों का अंकों की सहायता से वर्णन किया था। पुस्तक में किसानों तथा मजदूरों की आय एवं वस्तुओं की कीमत आदि का विस्तृत वर्णन है। सन्‌ 1917 में दादाभाई  नौरोजी की मृत्यु हुई।

भारतीय आर्थिक चिन्तक दादाभाई नौरोजी का आर्थिक चिंतन (Dada bhai nouroji ka aarthik chintan) -
भारतीय आर्थिक चिन्तक दादाभाई नौरोजी का आर्थिक चिंतन (Dada bhai nouroji ka aarthik chintan) –

भारतीय आर्थिक चिन्तक दादाभाई नौरोजी का आर्थिक चिंतन (Dada bhai nouroji ka aarthik chintan) –

  1. गरीबी की समस्या नौरोजी के अनुसार भारत की मुख्य समस्या निर्धनता है। उनके अनुसार-भारत की निर्धनता का प्रमुख कारण ब्रिटिश साम्राज्य था। उनके अनुसार ब्रिटिश इण्डिया की कुल प्रति व्यक्ति आय 20 रुपये प्रति वर्ष थी, जबकि प्रति व्यक्ति जीवन निर्वाह लागत 34 रुपये थी। उनके अनुसार देश के अधिकांश नगरों में मनुष्य भुखमरी के शिकार हैं। यहाँ मजदूरी की दरें पूरे विश्व में सबसे कम हैं। नौरोजी ने भारत की निर्धनता के लिए बेरोजगारी, कृषि की दुर्दशा तथा अकाल को भी प्रमुख कारण माना  है। इसके लिए ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियाँ उत्तरदायी थीं।
  2. ब्रिटिश शासन के प्रणाली नौरोजी के अनुसार ब्रिटिश शासन प्रणाली भारतीयों के लिए विनाशकारी एवं ब्रिटेन के लिए हितकारी थी। इसी को विदेश गमन सिद्धान्त कहते हैं। उनकी गणना अनुसार, भारत की निर्धनता का मुख्य कारण ब्रिटिश शासन द्वारा अत्यधिक कर लगाना है। इससे आर्थिक क्रियाएँ संकुचित होती जा रही थीं तथा निर्धनता बढ़ती जा रही थी।
  3. ब्रिटिश शासन की नीति की आलोचना नौरोजी के अनुसार ब्रिटिश शासन देश के अन्दर व्यापार को नष्ट कर रहा है। भारत ने ब्रिटिश शासन में उन्नति नहीं की बरन्‌ वह नष्ट हो गया। भारत की * निर्धनता प्रकृति के प्रकोप के कारण नहीं बरन्‌ ब्रिटिश शासन के कारण है। यदि प3कृति के नियम संचालित होते तो भारत दूसरा इंग्लैण्ड बन गया होता।
  4. राष्ट्रीय आय का विचारनौरोजी पहले भारतीय अर्थशास्त्री थे, जिन्होंने भारत की राष्ट्रीय -आय की गणना की और उसके विभिन्‍न समूहों के हिस्सों का निर्धारण किया।
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भारतीय आर्थिक चिन्तक मोहनदास करमचंद गाँधी भारतीय आर्थिक चिंतक  (Mohandas karamchand gandhi) –

  • मोहनदास करमचंद गाँधी (एम.के. गाँधी) का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबन्दर स्थान में हुआ था। इनके पिता करमचन्द एक रियासत के दीवान थे | माता अत्यन्त धार्मिक महिला थीं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा भारत एवं इंग्लैण्ड में हुई। चहाँ से वकालत पास करके यह वापस आये। उनका राजनीतिक जीवन दक्षिणी अफ्रीका सें प्रारम्भ हुआ |

वहाँ उन्होंने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया | वापस लौटकर गाँधीजी ने अपने को देश की सेवा में अर्पित कर दिया और जीवन भर देश सवा में संलग्न रहे । गसाँघधीजी के जीवन का वर्णन देश के इतिहास का घर्णन है, क्योंकि सन्‌ 1915 से 1948 तक वे भारत देश के एकमात्र >रोजस्ली नेता था। इसलिए उनको भारत का राष्ट्रपिरता कहा जाता है।

भारतीय आर्थिक चिन्तक मोहनदास करमचंद गाँधी

गाँधी जी के प्रमुख आर्थिक बिचार  निम्नलिस्बित हैं

  • अर्थशास्त्र स्का उद्देश्य-सेत्रा करना प्राश्चात्य अर्थशास्त्री अर्थशास्त्र का सम्बन्ध भौतिकता से स्थापित कररते हैं। परन्तु गाँधीजी की दृष्टि में अर्थशास्त्र एक नैतिक विज्ञान है। उनके अनुसार अर्थशास्त्र क्ग उद्देश्य मनुष्य की सभ्यता का अध्ययन करना, उसकी निर्धनता को दूर करना, सदाचार की भावना जाग्रत करना त्तथा समाज से चझ्लुराइयाँ दूर करना है।
  • शान भोग नहीं स्याग होना चछआहिएगाँधीजी मूलभूत आवश्यकताओं, जैसेभोजन, वस्त्र  शिक्षा, निवास, स्वास्थ्य आदि की पूर्ति आवश्यक समझते थे। परन्तु विलासिता का उनके अर्थशास्त्र में  कोई स्थान नहीं था। वह अपनी आवश्यकताओं को सीमित करने के पक्षधर थे। सादा जीवन उच्च विचार, उनका आदर्श था। धान साध्य नहीं साधन है-गाँधीजी ने धन को महत्व तो दिया, परन्तु वह इसे ‘साध्य’ न मानकर ‘स्लाधन’ सानते थे। उनका सिद्धान्त था, जीने के लिए खाओ, खाने के लिए मत जिओ
  • ग्राम राज पर खत्नगाँधीजी का अर्थशास्त्र ग्राम-प्रधान अर्थव्यवस्था पर आधारित था। परस्पर सहायात के द्वारा स्वत: की सहायता पर उन्होंने जोर दिया। उनके अनुसार प्रत्येक गाँव एक स्वतंत्र राज्य के समान आत्मनिर्भर होना चाहिए।
  • न्‍यासजलाद का सिद्धान्तगाँधीजी के अनुसार धन का उपयोग ज्यक्ति के लिए नहीं समाज मसात्र एक लिए होना चाहिए। उन्होंने “न्यासवाद का सिद्धान्त” दिया। उनके अनुसार धनी लोग अपने धन को समाज की धरोहर समझें तथा समाज के हित में ही उसे ज्यय करें | वह न्यायपूर्ण बितरण तथा आय की असमानता को दूर करने के पश्षधर थे ।
  • लघु एवं कुटीर उद्योग के प्रबत्त समर्थकगाँधीजी बड़े उद्योगों बज मशीनीकरण के प्रबल विरोधी थे | उनके मत में इससे समाज में शोषण एवं बेरोजगारी फैलती है | अतः वह लघु एवं कुटीर उद्योग का समर्थन करते थे । उन्होंने चरस् को अपनी क्रांति का प्रतीक बनाया।
  • आय ये आवश्यकता के मध्य सनन्‍्तुलनगाँधीजी ने आय ब आवश्यकता के मध्य सन्तुलन पर जोर दिया है। अधिक आवश्यकता तथा सीमित साधन के कारण असन्तुलन उत्पन्न होता है।
  • श्रम का सहत्वउनके अनुसार श्रम एक पवित्र जसस्‍्तु है। हमें स्वयं अपने हाथ से मेहनत करनी चाहिए । कोई भी कार्य नहीं होता है ।
  • प्रत्येक व्यक्ति को श्रम करना चाहिए तथा प्रत्येक व्यक्ति को कार्य मिलना भी आवश्यक है।
  • स्लायलत्नम्बन के समर्थकगाँधीजी राष्ट्रीय आत्मनिर्भता तथा स्वाबलम्बन के प्रबल समर्थक थे | उनके अनुसार हमें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करनी चाहिए।

पंडित जवाहर नेहरू (Pandit jwahar nehru)-

  पं. जवाहर लाल नेहरू का जन्म उत्तरप्रदेश की प्रसिद्ध धार्मिक नगरी इलाहाबाद में 14 नवम्बर, 1889 को हुआ । घर पर उन्हें एक अंग्रेज अभिभावक द्वारा शिक्षा दिलायी गयी। यह 13 बर्ष के हुए तो एफ.टी. बुक्स ने जो थियोसोफिस्ट थे, उन्हें शिक्षा दी । 13 वर्ष की अल्पायु में ही थियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य बन गये | सन्‌ 1905 में उन्होंने प्रसिद्ध हैरी विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया।

सन्‌ 1907 में उन्होंने ट्रिनिजी कॉलेज में प्रवेश लिया प्राकृतिक विज्ञान के साथ-साथ उन्होंने साहित्य, इतिहास और अर्थशास्त्र का भी अध्ययन किया । सन्‌ 1910 में उन्होंने कानून की पढ़ाई शुरू की और सन्‌ 1912 में बैरिस्टर बनकर भारत लौटे । सन्‌ 1916 में उनका विवाह हुआ।

इन्हीं दिनों वे गाँधी जी के घनिष्ठ सम्पर्क में आये।कितनी ही बार वे जेल गये और कठोर यातनाएँ सहीं | अन्त में सन्‌ 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और वह पहली लोकप्रिय सरकार के प्रधानमंत्री बने, जिस पद पर मृत्यु पर्यन्त कार्य करते रहे। उनकी  को हुई। नेहरू एक महान्‌ अध्ययनशील राजनीतिज्ञ, लेखक, दार्शनिक, पथ-प्रदर्शकभ, वक्‍ता और राष्ट्रनायक थे।

उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। भारतीय इतिहास एवं संस्कृति पर आधारित उनकी पुस्तक “भारत एक खोज उनमें प्रमुख है। देश की लाखों करोड़ों निर्धन जनता की आर्थिक समस्याओं को निकट से समझा।तब ही तो अपने राजनीतिक जीवन में प्रवेश करते ही उन्होंने यह कहा कि मैं देश की निर्धन जनता की दुर्भाग्यपूर्ण दुर्दशा को दूर करना चाहता हूँ। इसी घोषणा को उन्होंने सन्‌ 1936 में फैजापुर कांग्रेस के अधिवेशन के अध्यक्षीय पद से दोहराया था।

भारतीय आर्थिक चिन्तक नेहरू जी का अर्थिक चिंतन (Nehru ji ka aarthik chintan) –

  • नेहरूजी एक अर्थशास्त्री नहीं थे, परन्तु उनकी आर्थिक विचारधारा ने देश की अर्थनीति को प्रभावित किया है। प्रमुख आर्थिक विचार निम्नलिखित हैं
  1. लोकतांत्रिक समाजवाद के समर्थकनेहरू जी के अनुसार राज्य को उत्पत्ति के साधनों पर नियंत्रण करना चाहिए, ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपना हिस्सा अपनी आवश्यकतानुसार प्राप्त कर सके । परन्तु बह निजी सम्पत्ति एवं स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर थे | जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने व्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी। वास्तव में वह लोकतांत्रिक समाजवाद के समर्थक थे। |
  2. आर्थिक नियोजन का समर्थननेहरू जी रूस की प्रथम योजना से अत्यधिक प्रभावित थे। अत: वह देश के लिए आर्थिक नियोजन को अति आवश्यक मानते थे। परन्तु उनके अनुसार यह तभी सफल हो सकता है, जबकि देश स्वाधीन हो तथा सभी बाह्य नियंत्रण समाप्त हो जायें।
  3. भूमि सुधार के पक्षधरवह भारत में भूमि सुधार के पक्षधर थे | कृषि में वह सहकारी कृषि को उपयुक्त मानते थे। यह कृषि प्रशिक्षित व्यक्तियों के निरीक्षण में कराई जानी चाहिए। कृषि में वह मशीनीकरण के भी समर्थक थे। परन्तु वह सामूहिक कृषि के पक्षधर कदापि नहीं थे।
  4. औद्योगीकरण के पक्षधर नेहरूजी तीव्र औद्योगीकरण के पक्ष में थे। उनका मानना था कि इसके लिए ग्रामीण क्षेत्रों में लधु उद्योगों की स्थापना की जाये ताकि रोजगार में वृद्धि हो । परन्तु बड़े उद्योग भी देश के विकास हेतु आवश्यक हैं। उनके मत में आर्थिक नियोजन तभी सम्भव होगा, जब बड़े उद्योग स्थाति किये जायेंगे। महत्वपूर्ण तथा मूल उद्योगों की स्थापना सार्वजनिक क्षेत्र में की जानी चाहिए | देश के औद्योगीकरण के लिए वह वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास को आवश्यक मानते थे।

दीनदयाल उपाध्याय (Deendyal upaadhyaay) –

पं. दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर, 1916 को नगला चन्द्रभान (फरह), मथुरा जिले में एक साधारण परिवार में हुआ था। बाल्यकाल में ही माता-पिता का निधन हो जाने के कारण उनका लालन-पालन उनकी नानीजी के यहाँ हुआ |

बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि एवं अदभुत प्रतिभा के धनी इन्होंने मैट्रिक, इण्टरमीडिएट की परीक्षाएँ सर्वोच्च अंक से प्राप्त करके उत्तीर्ण कीं। स्नातक उत्तीर्ण करने के उपरान्त आगरा में उन्होंने एम.ए. में प्रवेश लिया। वह समाज के उपेक्षित वर्ग में उत्थान एबं स्वदेशी अर्थव्यवस्था के माध्यम से देश का आर्थिक विकास चाहते थे।

वह एक ऐसे राष्ट्र के निर्माण के लिए जीवन पर्यन्त प्रयास करते रहे जो स्वावलम्बी हो। 11 फरवरी, 1968 को मुगलसराय स्टेशन पर उनकी मृत्यु हो गयी ।

भारतीय आर्थिक चिन्तक दीनदयाल उपाध्याय का आर्थिक चिन्तन  (Deendyal upaadhyaayka aarthik chintan)-

  • दीनदायल उपाध्याय के प्रमुख आर्थिक विचार निम्नलिखित हैं
  1. एकात्म मानववाद का सिद्धान्तदीनदयाल उपाध्याय का सर्वाधिक प्रमुख योगदान उनका “एकात्म मानववाद’ का सिद्धान्त है। इसमें उन्होंने मानव को केन्द्र बिन्दु मानकर आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि विषयों का गहन अध्ययन किया है। उनके अनुसार व्यक्ति से परिवार बनता है तथा परिवार से समाज व समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। यह सभी हकाइयाँ अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्र अवश्य होती हैं, परन्तु अपने ऊपर की इकाइयों के साथ एकात्म होती चलती है।
  2. मानव को प्रमुख स्थान है दीनदयाल जी पूँजीवाद व समाजवाद के विकल्प के रूप में एक ऐसे लोकतांत्रिक समाजवाद की परिकल्पना करते हैं, जिसमें ‘मानव’ को प्रमुख स्थान दिया जाये। उनके अनुसार पूँजीवाद में मानव श्रम को अन्य बस्तुओं की भाँति क्रय-विक्रय किया जाता है, इसके विपरीत समाजवाद में मनुष्य राज्य रूपी मशीन का पुर्जा बनकर रह जाता है। अतः दोनों ही अर्थव्यवस्थाओं में मनुष्य का शोषण होता है।
  3. संयमित दोहन दीनदयाल जी के अनुसार अर्थव्यवस्था का संयमित उपभोग होना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था में उन्होंने ‘दोहन’ शब्द को प्रेयुक्ल किया। उनके अनुसार मनुष्य को प्रकृति से मात्र उतना ही लेना चाहिए, जिसकी कमी को प्रकृति स्वतः पूरा कर सके।
  4. सीमित उपभोग द्वारा पूँजी निर्माणउनके अनुसार सीमित उपभोग द्वारा ही पूँजी निर्माण सम्भव है। उपभोग में संयम के बिना पूँजी निर्माण नहीं होता है। उनके अनुसार पूँजीवाद व समाजवाद में श्रमिकों का हिस्सा हड़प कर पूँजीपति व सरकार पूँजी निर्माण करते हैं। परन्तु विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था में श्रमिकों को अधिक आय होती है और वह पूँजी निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  5. ग्राम विकास पर बल दीनदयाल उपाध्याय आर्थिक विकास हेतु ग्राम विकास को आवश्यक मानते हैं। इनके लिए सहकारी कृषि, जैविक खेती, कुटीर उद्योगों का विकास, पशुपालन आदि पर वह विशेष बल देते हैं।
  6. मशीनों को मानव का सहायक वह मशीनों को मानव का सहायक मानते थे, परन्तु उस मशीनीकरण को उपयुक्त नहीं मानते थे, जो बेरोजगारी को बढ़ावा दे। उनके अनुसार मशीन हमारी आर्थिक आवश्यकताओं के अनुकूल होना ही चाहिए। शिक्षा व स्वास्थ्य जो समाज के हित में है, वह निःशुल्क होने चाहिए। सामाजिक सुरक्षा की गारण्टी उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को काम के लिए न्यूनतम गारण्टी होनी चाहिए। रोटी, कपड़ा व मकान जो एक न्यूनतम स्तर है, वह प्राप्त होना ही चाहिए। शिक्षा ब स्वास्थ्य जो समाज के हित में है, वह निःशुल्क होने चाहिए
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