प्रस्तावना –
नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे भारतीय प्रागैतिहासिक काल (INDIAN PREHISTORIC TIMES) के वारे में बात करेंगे |
भारतीय प्रागैतिहासिक काल
भारतीय प्रागैतिहासिक काल का सम्बन्ध उस इतिहास से है जबकि मानव पशुयोनि से बढ़कर मनुष्य योनि में पदार्पण करता है। यह मानव सभ्यता के विकास की लम्बी कथा है जो प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर तीन कालों में बांटा गया है –
- पुरापाषाण काल
- मध्यपाषाण काल
- नव पाषाण काल।
भारतीय प्रागैतिहासिक काल ? / पुरापाषाण काल –
पुरा पाषाण काल में मानव के विकास की यात्रा काफी लम्बी है। अतः इसे तीन उपकालों में विभक्त किया गया है जैसे
(क) निम्न पुरा पाषाण काल,
(ख) मध्य पुरा पाषाण काल
(ग) उच्च पुरा पाषाण काल।
पुरा पाषाण काल-
1960 के पूर्व निम्न पुरा पाषाण काल जिसे पूर्व पुरा पाषाण काल भी कहते हैं, को प्रस्तर युग (Stone Age) कहा जाता था। बाद में इस काल का तीन वर्गीय विभाजन प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर किया गया। प्राग-इतिहास (Pre History) के बाद आद्य-इतिहास (Proto History) का युग शुरू होता है। सामान्यतया आद्य-इतिहास (जिसे पुरैतिहास भी कहते हैं) का अभिप्राय उस युग के इतिहास से है
जबकि मनुष्य खाद्य का उत्पादन शुरू करता है और अपने सास्कृतिक विकास की यात्रा करता हुआ ऐतिहासिक काल का स्पर्श करता है। तदन्तर इतिहास का युग (Historic Age) शुरू हो जाता है। आद्य-इतिहास युग एक विस्तृत युग है जिसमें मनुष्य अनेक सांस्कृतिक पड़ावों से गुजरता है। इस सांस्कृतिक पड़ावों की भी तीन क्रमिक स्थितियाँ हैं जैसे
(क) प्राक्-हड़प्पा संस्कृति
(ख) हड़प्पा संस्कृति
(ग) उत्तर हड़प्पा संस्कृतियाँ । इन सब का अध्ययन हम क्रमशः करेंगे।
भारतीय प्रागैतिहासिक काल ? / पुरापाषाण कालीन सभ्यताएँ –
भारत विश्व के प्राचीनतम देशों में से है जहाँ मानव ने अपनी सभ्यता का समारम्भ किया था। वैज्ञानिक गवेषणाओं से यह स्पष्ट हो चुका है कि भू-मण्डल पर जीवन जन्तुओं का विकास धीरे-धीरे हुआ था। संभावना है कि प्राय: 80 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर जीव के चिह्न प्रकट हो गये थे। यह भी संभावना व्यक्त की गई है कि प्रायः कुछ लाख वर्ष पूर्व आदि मानव की उत्पत्ति ‘वानर जाति सरीखे प्राणी से हुई थी।
इस आदि मानव को सभ्य होने में सहस्त्रों वर्ष लगे। मानव सभ्यता के इस विकास की यात्रा का अध्ययन जीवशास्त्र, मानवशास्त्र तथा पुरातत्वशास्त्र ने करने का प्रयास किया है। उसके प्रागैतिहासिक यात्रा का अध्ययन भारतीय प्रागैतिहासिक काल पुरातत्व करता है। मानवकृत पुरावशेषों से यह स्पष्ट हो गया है कि मानव सभ्यता का बीजारोपण पुरा पाषाण काल में हुआ था। इस सभ्यता के बीज का रोपण तो निम्न पुरा पाषाण काल में हुआ। पर उसका अंकुरण मध्य पुरा पाषाण काल में हुआ। तदन्तर उस का पल्लवन उच्च पुरा पाषाण काल में हुआ।
भारतीय प्रागैतिहासिक काल ? / क. निम्न पुरा पाषाण काल –
इस काल के शुरू में मानव पूरी तरह नग्न रहता था। पशुओं को मार कर उसके कच्चे माँस और प्रकृति प्रदत्त कन्द मूल से उदर पूर्ति करता था। देखा जाय तो इस काल का मानव पूरी तरह अपनी आदिम अवस्था में था। धीरे-धीरे वह मृत पशुओं के चमड़े, पेड़ पौधों के पत्ते व छाल से अपना अंग ढांकने लगा और पशु की हड्डियों को अस्त्र-शस्त्र के रूप में प्रयोग करने लगा।
समय के साथ उसने प्रकृति प्रदत्त पत्थर के टुकड़ों का प्रयोग अपने अस्त्र-शस्त्र के रूप में करने लगा। धीरे-धीरे वह पत्थर के टुकड़ों व बोल्डर को अपनी जरूरत के अनुरूप काट-छाँट कर अपने अस्त्र-शस्त्र बनाने लगा। पत्थर के ये औजार उसके लिए उपयोगी सिद्ध हुए। वह इन औजारों से पशुओं का शिकार करता व अन्य कार्य करने लगा। उसके प्रस्तर के औजारों का नामकरण आज के पुरातत्व-विदों ने किया – जैसे हैण्ड एक्स (Hand Axe) चापर-चापिंग पेवल (Chapper-chopping Pebble) आदि। निम्न पुरापाषाण काल के उपकरण उत्तर में गांगेय क्षेत्र व दक्षिण में केरल को छोड़ कर प्राय: सभी क्षेत्रों से प्राप्त हुए हैं।
इस काल के पुरावशेष मुख्यतः पठारी इलाकों, पहाड़ की तलहटियों, नदी घाटी क्षेत्रों में मिलते हैं। इस काल का एक अनगढ़ हैण्ड एक्स 1969 में एच. डी. सांकलिया को काश्मीर के लिद्दर नदी घाटी क्षेत्र से मिला। इसे प्राचीनतम हेण्ड एक्स माना जा सकता है। उल्लेखनीय है कि मध्य हिमालय के दक्षिण में शिवालिक की पर्वत श्रेणी है, जो पश्चिम में सिन्धु नदी से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी तक हिमालय के साथ फैली हुई है।
शिवालिक श्रेणी का जमाव लगभग 5000 से 5500 मी. तक मिलता है, जो हिमालय की नदियों द्वारा लाया गया है। इन जमाव से जीव-जन्तुओं के जीवाश्म भी मिलते हैं। इस शिवालिक पर्वत श्रेणी की तलहटी में उत्तरी पंजाब स्थित पोतकर के पठार से निम्नपुरा पाषाण काल के उपकरण मिलते हैं। इसी पठार से बहती है सिन्ध की सहायक नदी सोहन। यह सोहन नदी घाटी उपकरणों के लिए महत्वपूर्ण हैं। इस क्षेत्र से पुरातत्व विदों ने पुरापाषाण कालीन उपकरण संग्रहित किए हैं। सोहन घाटी से मिलने वाले उपकरणों को चार भागों में बाँटा गया है जैसे –
(1) प्राग सोहन,
(2) प्रारम्भिक सोहन,
(3) अन्त सोहन,
(4) विकसित सोहन।
प्राग सोहन-
प्राक-सोहन उपकरणों को अधिकांश पुरातत्वविद मानव निर्मित नहीं मानते।
प्रारम्भिक सोहन-
प्रारम्भिक सोहन परम्परा के चापर वह हैण्ड-एक्स मिलते हैं। इस काल के उपकरण सोहन घाटी में आदियाल, खसलकला व चौन्तरा आदि से और सिन्धु घाटी में खुशालगढ़, मारवद तथा इंजिरा आदि से प्राप्त हुए हैं।
अन्त सोहन-
अन्त सोहन परम्परा के उपकरणों में स्क्रेपरों की संख्या अधिक है जो परवर्ती प्रतीत होते हैं।
विकसित सोहन
विकसित सोहन परम्परा के उपकरणों में ब्लेड पर बने उपकरणों की प्रधानता है।
निम्न पुरापाषाण काल में हैण्ड एक्स व अन्य उपकरण कुछ घिसी अवस्था में भी मिले हैं। सतलज के सहायक सिरसा नदी घाटी में चांपरचापिंग शैली के निम्न पुरा पाषाणिक उपकरण भी मिले हैं। इसी प्रकार व्यास नदी की सहायक नदी घाटियों के पुरास्थलों से चापर-चापिंग परम्परा के उपकरण मिले हैं। बी. बी. लाल को कांगड़ा घाटी से इस काल के उपकरण मिले हैं। इन उपकरणों में पेबल हैण्ड एक्स उल्लेखनीय है।राजस्थान अरावली की पहाड़ियों द्वारा दो भागों में विभक्त है। इस अरावली के पश्चिम का भाग मारवाड़ तथा दक्षिण-पूर्व का भाग मेवाड़ कहलाता है। मेवाड़
क्षेत्र में बेराच, बागन, गम्भीर, कादमली तथा बनास जैसी बरसाती नदियाँ हैं, जो दक्षिण-पश्चिम से पूर्वोत्तर दिशा में बहती हुई चम्बल में मिल जाती हैं। चम्बल यमुना की प्रमुख सहायक नदी है। राजस्थान का यह दक्षिण पूर्वी क्षेत्र पश्चिमी क्षेत्र की तुलना में अधिक हराभरा है। इस क्षेत्र की गम्भीर, वागन, वेशच व कादमली की घाटियों से हैण्ड एक्स, चापर, स्क्रेपर तथा क्रोड आदि उपकरण मिल हैं जिनका इस्तेमाल इस अंचल का निम्न पाषाण कालीन मानव करता था।
चम्बल घाटी में सोनिता तथा भैसोंरंगढ़ से हैण्डएक्स, क्लीबार, स्क्रेपर व चापर आदि मिले हैं। गम्भीरी पर स्थित चित्तौड़गढ़ व वेराच पर स्थित नागरी राजस्थान के प्रमुख पुरास्थान हैं। पश्चिमी राजस्थान का अर्ध-शुष्क मरुस्थल गुजरात से लगा है। गुजरात के सीमान्त को एक ओर अरावली,दूसरी ओर सतपुड़ा, तीसरी ओर सह्याद्रि की पर्वत मालाएँ स्पर्श करती हैं। अरावली से निकलने वाली साबरमती व माही नदियाँ गुजरात से गुजरती हुई खम्भात की खाड़ी में गिरती हैं। इसी प्रकार पूर्व से निकलने वाली नर्मदा व ताप्ती नदियाँ गुजरात से प्रवाहित हो समुद्र से मिलती हैं। गुजरात का पश्चिमी भाग सौराष्ट्र पठारी है।
इस पठारी क्षेत्र में भदर, हिरण व कालूबार जैसी बरसाती नदियाँ बहती हैं। साबरमती घाटी से हैण्ड एक्स, क्लीवर, पेबल जैसे निम्न पुरापाषाण कालिक उपकरण मिले हैं। सौराष्ट्र के पठारी क्षेत्र से भी निम्न पुरा पाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। पश्चिमी घाट में दक्कन का पठारी क्षेत्र फैला हुआ है। इस उबड़ खाबड़ पठारी क्षेत्र में महाराष्ट्र व कर्नाटक स्थित हैं।
इसे पश्चिमी घाट से गोदावरी, प्रवरा, भीमा,कृष्णा, कावेरी, तुंगभद्रा, मालप्रभा तथा घटप्रभा आदि नदियाँ निकलकर पूर्व की ओर बहती हुई पूर्वी घाट में गिरती हैं। इन नदी घाटियों में निम्न पुरापाषाण से लेकर मध्य पाषण काल तक के प्रस्तर उपकरण मिलते हैं। इस क्षेत्र के पुरास्थलों में नेवारा बोरी,मेरगाँव व यक्षर भदेन आदि उल्लेखनीय हैं। अहमदनगर जिले में स्थित नेवासा एक प्रमुख पुरास्थल है जहाँ से हैण्ड एक्स, क्लीवर, स्क्रेपर व क्रोड आदि मिले हैं।
इन निम्न पुरापाषाणिक उपकरणों से स्तर के हाथी व घोड़े के जीवाश्म भी मिले हैं। गोदावरी तट पर स्थित गंगापुर पुरास्थल से एश्यूलन उपकरण प्राप्त हुए हैं। इसी क्षेत्रमें प्रवरा एवं चिरकी नाल के संगम क्षेत्र में स्थित चिरकी नेवासा से भी पुरापाषाणिक उपकरण मिले हैं। इस क्षेत्र में बड़ी मात्रा में हैण्ड एक्स, चापर आदि प्राप्त हुए हैं।पुरास्थलों में बोरी उल्लेखनीय है, जिसकी खोज डकल कालिन पूना के पुराविदों ने किया था।
कुकड़ी नदी घाटी में स्थित बोरी में राख का जमाव मिला है। इसी राख के जमाव से पुरापाषाणिक उपकरण मिल हैं। इस बोरी पुरास्थल से चापर, हैण्ड एक्स,फलक के साथ ही पालिहेंडन व उभयमुखी कुल्हाड़ियाँ मिली हैं। इन उपकरणों का निर्माण इस क्षेत्र के बेसाल्ट तथा डोलेराइट पत्थरों से किया गया है। दक्षिण में पश्चिमी घाट के अपेक्षा पूर्वी घाट नीचे है। इसके पूर्वी तट का उत्तरी भाग सरकार तथा दक्षिणी भाग कोरोमण्डल कहलाता है, जिसमें कर्नाटक, तमिलनाडु व आन्ध्र वर्तमान हैं।
इसमें पठारी भाग की जलवायु विषम और तटीय भाग की सम है। इस अंचल से गोदावरी, कृष्णा, मलप्रभा, घटप्रभा, तुगभद्रा, कावेरी तथा पेन्नार पश्चिमी घाट से निकल कर दक्षिण-पूर्व की ओर बहती हुई पूर्वी समुद्र में गिरती हैं। इसमें घटप्रभा के सहायक नाले के तट पर स्थित अनागबाड़ी एक प्रमुख पुरास्थल है जहाँ से एश्यूलन उपकरण प्राप्त हुए हैं।
इसी प्रकार कृष्णा नदी के सहायक नालों हुणसगी तथा बैचवल के तटों से भी निम्न पुरापाषणिक उपकरण मिले हैं। इसमें हैण्डएक्स, क्लीवर, स्क्रेपर, चापर, नाइफ आदि उल्लेखनीय हैं। तमिलनाडु के चिंगलपेट, जिला स्थित गुडियम गुफा के उत्खनन से भी इस काल के हैण्ड एक्स,क्लीवर व स्क्रेपर आदि मिल हैं। आन्ध्रप्रदेश में कर्नूल, चिन्हूर, नागार्जुन कोण्ड,नलकोण्ड, कडप्पा नल्लौर आदि जिलों में स्थित विभिन्न पुरास्थलों से निम्न पुरापाषाण काल के उपकरण मिले हैं।
इनमें हैण्डएक्स, क्लीवर, स्क्रेपर, चापर, क्रोड आदि प्रमुख उपकरण हैं। विंध्य पर्वत श्रृंखला बिहार से गुजरात तक फैली हुई है। इस पर्वत श्रृंखला में अनेक पठार हैं ओर अनेक नदियाँ बहती हैं जिन्होंने प्रगैतिहासिक सभ्यता को अपने अंचल में पाला हैं। विन्ध्याचल ने निम्न पुरापाषाण काल से लेकर बाद के कालों तक के पुरावशेषों को अपने में समेट रखा है। यहाँ की नदी घाटियाँ व पठार पुरावशेषोंसे सम्पन्न हैं, जिनमें से कुछ का सर्वेक्षण व उत्खन्न भी हुआ, पर अनेक स्थल अभी भी अध्ययन से परे हैं।
विन्ध्य क्षेत्र के पूर्व में जहाँ छोटा नागपुर का पठार है वहीं उसके पश्चिम में सौराष्ट्र का पठार है विन्ध्य क्षेत्र के पश्चिम के पठारों में मालवा का पठार काफी विस्तृत है और विन्ध्य क्षेत्र के मध्य पूर्व में रीवा पठार, मिर्जापुर पठार व बघेलखण्ड का पठार है। विन्ध्य की कैमूर पर्वत श्रृंखला जो पश्चिम में कटनीमुडवारा होती है तो पूर्व में बिहार स्थित रोहतास के पठार तक चली गई है।
यही कैमूर श्रृंखला जहाँ सोननद को पूर्व की ओर मोड़ देती, जो पूर्व में लम्बी दौड़ के बाद गंगा में मिलती है। कैमूर श्रृंखला जहाँ सोन को पूर्व की ओर मोड़तीहै. वहां रोवा पठार व मिर्जापुर पठार को उत्तर को ओर प्रशस्त करती है इस कैमूर के दक्षिण में स्थित है बिखरा हुआ बघेलखण्ड का पठार। सोनघाटी के साथ विश्ध्य के तीनों पठार प्रागैतिहासिक सभ्यता के अवशेषों को अपने आंचल में हुए हैं।
इसी प्रकार पश्चिम मध्य में नर्मदा घाटी के साथ मालवा का पठार प्रागतिहासिक संस्कृति को अपने आप में समेटे हुए है। प्रागैतिहासिक दृष्टि से पूर्व में छोटा नागपुर व पश्चिम में सौराष्ट्र पठारों की महत्ता भी कम नहीं है। पूर्व में छोटा नागपुर से परे बिहार, बंगाल, उड़ीसा व असम की प्रागैतिहासिक महत्ता को नकारा नहीं जा सकता, जिनका काफी कुछ अध्ययन अभी बाकी है। बिहार के , हजारी बाग, परगना, रांची, सिंहभूमि आदि जिलों से निम्न पुरापाषाण काल के उपकरण मिले हैं। इसी प्रकार बंगाल के वॉकुड़ा, पुरुलिया, व मिदनापुर से निम्न पुरापाषाणिक उपकरण मिले हैं।
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