भारत विभाजन के कारण | Bharat Vibhajan | शरणार्थियों की समस्या | देशी राज्यों का विलीनीकरण |देशी रियासतों का एकीकरण (विलीनीकरण) | जम्मू कश्मीर रियासत की समस्या | स्वतन्त्रता के पश्चात्‌ भारत के समक्ष चुनौतियाँ ||

भारत विभाजन के कारण | Bharat Vibhajan | शरणार्थियों की समस्या | देशी राज्यों का विलीनीकरण |देशी रियासतों का एकीकरण (विलीनीकरण) | जम्मू कश्मीर रियासत की समस्या | स्वतन्त्रता के पश्चात्‌ भारत के समक्ष चुनौतियाँ, 2024

प्रस्तावना –

नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे भारत विभाजन के कारण | Bharat Vibhajan | शरणार्थियों की समस्या | देशी राज्यों का विलीनीकरण |देशी रियासतों का एकीकरण (विलीनीकरण) | जम्मू कश्मीर रियासत की समस्या | स्वतन्त्रता के पश्चात्‌ भारत के समक्ष चुनौतियाँ के वारे में बात करेंगे |

स्वतन्त्रता के पश्चात्‌ भारत के समक्ष चुनौतियाँ

 

भारत विभाजन के कारण शरणार्थियों की समस्या एवं देशी राज्यों का विलीनीकरण –

सन्‌ 1947 में भारत की स्वतन्त्रता के साथ-साथ भारत विभाजन हुआ। भारत विभाजन का परिणाम भारत और पाकिस्तान दो देशों के रूप में हुआ। इस विभाजन की खबर फैलते ही भारत व पाकिस्तान में साम्प्रदायिक दंगों का ऐसा भयंकर व विकराल ताण्डव शुरू हुआ जिसकी हृदय विदारक कल्पना भी मन मस्तिष्क को हिला देती है। भारत विभाजन के कारण

भारत विभाजन के फलस्वरूप सर्वप्रथम साम्प्रदायिक दंगे पूर्वी पंजाब व पश्चिमी पंजाब में आरंभ हुए। इन दंगों ने दोनों देशों भारत और पाकिस्तान की कड़वाहट और बढ़ा दी। इन साम्प्रदायिक दंगों को अंग्रेजों ने प्रोत्साहित कर पारस्परिक नरसंहार का काला अध्याय भारतीय इतिहास में जोड़ दिया। इन दंगों ने आम जनता में ही नहीं सैन्य संगठन में भी अपना प्रभाव दिखाया। 

भारत विभाजन के पीछे भी अंग्रेजों ने अपनी कुटिल चाल चली व साम्प्रदायिकता की आग को भड़काकर दोनों देशों भारत व पाकिस्तान को आपस में लड़वाया जिससे ये देश कमजोर बने रहें। इन साम्प्रदायिक दंगों की भयावहता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन दंगों में लाखों लोग मारे गये परन्तु उन मृतकों की संख्या का विश्वसनीय हिसाब न भारत में है और न ही पाकिस्तान में ।

विभिन्न विद्वानों व इतिहासकारों ने इन दंगों में मरने वाले लोगों की संख्या का अनुमान भिन्न-भिन्न लगाया है। पंजाब के पहले भारतीय गवर्नर सर चन्दूलाल द्विवेदी इन दंगों में मरने वाले लोगों की संख्या 2,25,000 के लगभग बताते हैं, वहीं न्यायाधीश जी.डी. खोसला इन आँकड़ों को 5,00,000 बताते हैं।

इन विभिन्न अनुमानों के पश्चात्‌ भी यह तो निश्चित ही है कि इन दंगों में मरने वाले लोगों की संख्या लाखों में थी। ” इन दंगों के कई भयावह परिणाम सामने आये। इन दंगों ने दोनों देशों में कई समस्याओं का अम्बार लगा दिया। जन-धन की हानि का अनुमान लगाना असंभव – सा प्रतीत होता है। भारत का यह विभाजन दु:खों व त्रासदी का पर्याय था। 

भारत विभाजन के कारण –

14 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को माउण्टबेटन योजना के अन्तर्गत भारत और पाकिस्तान का जन्म भारत विभाजन के परिणाम के रूप में हुआ। भारत विभाजन के लिए विभिन्न कारक उत्तरदायी थे। इसमें से कुछ निम्न हैं

  1.  मुस्लिम वर्ग, हिन्दू वर्ग से पूर्णत: सामंजस्य नहीं बैठा पाया। जबकि ये दोनों वर्ग कई सदियों तक साथ में रहे। परन्तु मुस्लिम वर्ग की धर्मान्धता ने मुस्लिम वर्ग को हिन्दू धर्म से अलग रखा। इस भावना को मुस्लिम लीग, मोहम्मद अली जिन्ना, इकबाल आदि ने प्रोत्साहित किया व जिसका परिणाम भारत विभाजन के रूप में देखने को मिला। 
  2.  मुस्लिम व हिन्दू वर्ग को साम्प्रदायिकता की आड़ में अलग-अलग रखने की अंग्रेजों की कुटिल नीति ने मुस्लिम व हिन्दुओं को एक जुट नहीं रहने दिया। अंग्रेजों ने मुस्लिम वर्ग को संरक्षण प्रदान किया जिससे मुस्लिम वर्ग के पृथक देश की भावना की बल मिला।
  3. कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति ने मुस्लिम बर्ग की कई अनुचित मांगों को भी मान लिया। इसी अनुचित मांग की श्रृंखला में 1916 में हुए लखनऊ समझौते ने भारत विभाजन की नींव रखी व मुस्लिम वर्ग के हौंसले बुलंद हुए।
  4. अंत्तरिम सरकार में मुस्लिम लीग के सदस्यों को शामिल किये जाने से सरकार हिन्दू-मुस्लिम दंगों क्य रोकने हेतु सशक्त निर्णय नहीं ले सकी व हिन्दू-मुस्लिम दंगों की भयावहता ने कांग्रेस को भारत विभाजन स्वीकार करने हेतु बाध्य कर दिया। 

भारत विभाजन के कारण से उत्पन्न शरणार्थी समस्या

भारत विभाजन ने दोनों देशों में विभिन्न समस्याओं को जन्म दिया। इन समस्याओं में शरणार्थी की समस्या सबसे बड़ी तात्कालिक समस्या थी। भारत से पाकिस्तान जाने वाले लोग पाकिस्तान में शरणार्थी बने वहीं पाकिस्तान से आने वाले लोग भारत में शरणार्थी बने। पाकिस्तान से भारत आने वाले शरणार्थियों को संख्या लगभग एक करोड़ थी वहीं भारत से पाकिस्तान जाने वाले शरणार्थी भी एक करोड़ के लगभग थे। आरत में सिकक्‍्ख शरणार्थी अधिकांशत: तराई क्षेत्रों में बसे । भारत विभाजन से उत्पन्न शरणार्थी समस्या ने दोनों राष्ट्रों को प्रभावित किया। दोनों राष्ट्रों के लिए शरणार्थियों को बसाने की समस्या, शरणार्थियों की सम्पत्तियों के निपटारे कौ समस्या प्रमुख समस्या थी। 

भारत विभाजन के कारण शरणार्थियों को बसाने की समस्या 

दोनों ही देशों में लगभग एक-एक करोड़ शरणार्थी अपनी दयनीय अवस्था लिए सरकारों से पुनर्वास की आशा लगाये हुए थे। परन्तु एक साथ इतने लोगों का पुनर्वास एक कठिन कार्य था। इस समस्या ने देश की खाद्यात्र व्यवस्था, आवास व्यवस्था, आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, प्रशासनिक व्यवस्था आदि को असमर्थ व असहाय कर दिया था। व्यवस्था को संतुलित करने हेतु बनाई गई “आपात समिति’ जिसके अध्यक्ष लार्ड माउण्टबेटन थे, ने राहत कार्यों में बहुत मदद की। शरणार्थियों को बसाने के लिए समय की आवश्यकता थी अत: यह कार्य धीरे-धीरे सम्पन्न हुआ।

भारत विभाजन के कारण शरणार्थियों की सम्पत्तियों के निपटान की समस्या है- 

दोनों देशों के शरणार्थी अपनी-अपनी सम्पत्ति छोड़कर भारत से पाकिस्तान व पाकिस्तान से भारत आये अत: दोनों सरकारों के समक्ष शरणार्थियों कौ सम्पत्तियों के निपटान की समस्या भी खड़ी हो गई थी। इस समस्या पर भारत व पाकिस्तान के मध्य कई बार बातचीत हुई परन्तु भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण व सुझावों से यह समस्या सुलझ न सकी।

तः भारत से पाकिस्तान गये शरणार्थियों की सम्पत्ति का प्रयोग भारत आये शरणार्थियों हेतु करने का निश्चय किया गया तथा 1956 में दोनों सरकारों ने एक समझौते के तहत शरणार्थियों के बैंक खातों, लॉकरों एवं स्थिर जमा को हस्तांतरित करने पर सहमति प्रकट की। सन्‌ 1950 में भारत पाकिस्तान के तात्कालीन प्रधानमंत्रियों जवाहरलाल नेहरू एवं लियाकत के मध्य शरणार्थियों की स्थायी सम्पत्तियों को वापस करने या स्थानान्तरित करने संबंधी समझौता हुआ। इस समझौते को नेहरू-लियाकत समझौता कहा जाता है। 

भारत विभाजन के कारण देशी रियासतों का एकीकरण (विलीनीकरण)- 

स्वतंत्रता से पूर्व भारत का समस्त क्षेत्र दो भागों में विभाजित था। एक भाग में वे भारतीय प्रान्त थे, जो ब्रिटिश सरकार के अधीन थे ओर दूसरे भाग में वे क्षेत्र थे, जिन पर भारतीय राजाओं का शासन था। ब्रिटिश भारत के प्रान्तों पर ब्रिटिश शासकों का प्रत्यक्ष नियंत्रण था। सन्‌ 1939 ई. में द्वितीय विश्व युद्ध के समय तक ब्रिटेन की संसद ने एक ऐसी राजनीतिक प्रणाली विकसित कर ली थी, जिसके अनुसार भारत के लोगों को अपने शासन तंत्र में काफी भागीदारी मिल गई थी।

दूसरी ओर देशी रियासतों में ब्रिटिश प्रभुसत्ता के अधीन देशी राजाओं का शासन था। ब्रिटिश प्रभुसत्ता का अर्थ था कि भारतीय रियासतें ब्रिटेन के राजा के अधीन थीं। देशी रियासतों की सुरक्षा और विदेशी मामलों का नियमन और नियंत्रण ब्रिटेन का राजा भारत की ब्रिटिश सरकार द्वारा करता था।

आन्तरिक व्यवस्था का उत्तरदायित्व देशी राजाओं का था, परन्तु ब्रिटिश सरकार कुप्रबन्ध का आरोप लगाकर उसमें भी हस्तक्षेप कर सकती थी। यहाँ याद रखने योग्य बात यह है कि रियासतों में परम्परागत राजतंत्र था और वहाँ की जनता को शासन व्यवस्था में भाग लेने का कोई अधिकार नहीं था। ब्रिटिश भारत की राजनीतिक प्रगति देशी रियासतों में प्रतिबिम्बित हो रही थी। परन्तु स्वतंत्रता के समय अधिकांश देशी रियासतों का वातावरण सामन्तवादी, और मध्यकालिक और शासन स्वेच्छाचारी था।

परिणाम स्वरूप जन-साधारण अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत था। वे मांग कर रहे थे कि उन्हें भी कमसे-कम वे अधिकार दिए जाएँ जो ब्रिटिश संसद ने ब्रिटिश भारत के लोगों को दे रखे हैं। 1945 ई. में अखिल भारतीय प्रजामंडल ने यह लक्ष्य स्वीकार कर लिया था कि वे भारत संघ के अभिन्न अंग के रूप में धीरेधीरे लोकप्रिय सरकार स्थापित करेंगे। 

देशी रियासतें सारे भारत में फैली हुई थीं। इन रियासतों में वंशानुगत राजाओं का शासन था। ये रियासतें न तो क्षेत्रफल की दृष्टि से समान थीं और न उनका स्तर (दर्जा) समान था। जम्मू-कश्मीर, हैदराबाद और मैसूर जैसी कुछ बड़ी रियासतें थीं तो उड़ीसा की सिलचर और राजपूताना की लावा जैसी रियासतों का क्षेत्रफल कुछ वर्गमील था। यह एक प्रकार से छोटी जागीरें थीं।

इसके अतिरिक्त भोपाल, जयपुर और जोधपुर जैसी मध्य आकार वाली रियासतें थीं। परन्तु सभी जगह रहने वाले लोग लगभग एक जैसे थे चाहे वे ब्रिटिश भारत के प्रान्त में रहते थे अथवा भारतीय रियासत में रहते थे। 1947 में स्वतंत्रता के बाद भारत स्वतंत्रता अधिनियम के अधीन सभी देशी रियासतों को अपनी इच्छा से भारत अथवा नव॑निर्मित पाकिस्तान में शामिल होने या स्वतंत्र रहने की स्वतंत्रता दी गई थी। अधिकांश रियासतें स्वेच्छा से भारत में शामिल हो गईं। स्वतंत्र भारत की संघात्मक प्रणाली को सुदृढ़ और संगठित करने में देशी रियासतों ने बाधा डाली।

भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अनुसार लगभग 562 देशी रियासतों को स्वतंत्रता दी गई कि यदि वे चाहें तो भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाएँ और यदि चाहें तो स्वतंत्र रहें। यदि इन देशी रियासतों ने स्वतंत्र रहने का निर्णय ले लिया होता तो भारत की राष्ट्रीय एकता को गहरा आघात पहुँचता। अत: समस्या यह थी कि किस प्रकार इन देशी रियासतों को राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से संगठित कर भारत के ढांचे में लाया जाए।

भारत एक प्रभुसत्ता सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य सरलता से बन सकता था यदि देशी रियासतें स्वेच्छा से बिना संघर्ष और रक्‍्तपात के भारत में शामिल हो जाती। उस समय केन्द्र सरकार में नवनिर्मित राज्य मंत्रालय के अध्यक्ष सरदार पटेल थे। वह यथार्थवादी थे और उनकी कल्पना में एक सुन्दर संगठित भारत था। वे उस समय तक विचलित नहीं हुए, जब तक उन्होंने देशी रियासतों को भारत का अभिन्न अंग नहीं बना दिया।

भारत में ब्रिटिश राजनीतिक विभाग को समाप्त करके स्टेट्स डिपार्टमेन्ट का गठन सन्‌ 1947 में किया गया। इसके प्रभारी गृहमंत्री श्री सरदार पटेल को बनाया गया। इस डिपार्टमेंट के सचिव बी.पी. मेनन थे। जुलाई 1947 ई. में सरदार पटेल ने राज्य मंत्रालय का कार्यभार संभालते ही अनुभव किया कि देशी रियासतों को भारत में शामिल करना अत्यन्त आवश्यक हैं।

उनमें से कुछ ने अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए स्वतंत्र रहने का निर्णय ले लिया था। भारत के मध्य में स्थित भोपाल के नवाब ने तो विलय के लिए पाकिस्तान से बातचीत शुरू कर दी, परन्तु इस रियासत की जनसंख्या इस पक्ष में नहीं थी। सरदार पटेल ने भोपाल के नवाब की कड़ी निगरानी शुरू कर दी और उनके स्वप्न को भंग करने के लिए तैयारी की।

ट्रावनकोर के दीवान सर सी.पी. अय्यर ने घोषणा कर दी कि उनका राज्य एक स्वतन्त्र राज्य है और वह संसार की किसी भी सरकार से सम्पर्क करने में स्वतंत्र है। हैदराबाद के निजाम ने भी अपने राज्य की स्वतंत्रता की बात की। यह स्थिति सरदार पटेल को भारत संघ के लिए घातक लगी। इसलिए उन्होंने देशी राजाओं से देश-प्रेम और राष्ट्रीयता की गुहार की।

उन्होंने उनसे अनुरोध किया कि वे भारत संघ में शामिल हो,अपने प्रतिनिधि संविधान सभा में भेजें और उनके माध्यम से लोकतांत्रिक संविधान बनाने में भाग लें। उन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रिटिश शासन काल में भी इन तीनों ही विषयों पर उनका कोई विशेष अधिकार नहीं था। उनके अनुरोध के परिणाम स्वरूप रामपुर, बड़ोदा, बीकानेर, कोचीन, जयपुर, जोधपुर, पटियाला, रीवा और अन्य रियासतें भारत संघ में विलय के लिए दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने लगीं।

इस संदर्भ में तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड माउन्टबेटन ने भी बहुत सहायता की। उन्होंने देशी राजाओं से कहा कि उनकी सुरक्षा इसी में है कि वे शीघ्र से शीघ्र भारत या पाकिस्तान में शामिल हो जाएँ। जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर सभी रियासतों ने 15 अगस्त, 1947 ई. तक भारत विलय सम्बन्धी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर दिये।

भारत विलय सम्बन्धी दस्तावेज पर सर्वप्रथम बड़ोदा के महाराजा ने हस्ताक्षर किए और अन्त में हस्ताक्षर करने वालों में थे धौलपुर, भरतपुर, बिलासपुर और नाभा के राजा। भारत संघ में देशी रियासतों के विलय कौ प्रक्रिया को जानने से पूर्व समस्या प्रधान तीन रियासतों जूनागढ़, हैदगबाद और जम्मू-कश्मीर के विषय में विस्तार से जान लेना आवश्यक होगा! 

जम्मू कश्मीर रियासत की समस्या-

जम्मू-कश्मीर में हरिसिंह नामक हिन्दू राजा था। परन्तु 80 प्रतिशत जनसंख्या मुसलमान थी। पाकिस्तान को डर था कि कहीं महाराजा भारत संघ में शामिल न हो जाए। इसलिए पाकिस्तान सरकार ने उत्तर-पश्चिम सीमान्त प्रान्त के कबीलों को कश्मीर पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। बाद में पाकिस्तान की नियमित सेना भी कबीलों की सहायता करने लगी। अक्टूबर 1947 ई. में जब आक्रमणकारी श्रीनगर राजधानी के लगभग 10 मील दूर थे महाराजा ने भारत से सैनिक सहायता माँगी।

भारत सरकार ने अपने सैनिक जम्मू-कश्मीर भेजे और 1948 ई. के अन्त तक भारतीय सेना ने लगभग सभी आक्रमणकारियों को राज्य से निकाल दिया था। भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ से सहायता माँगी कि वह पाकिस्तान के आक्रमणकारियों को कश्मीर छोड़ने के लिए विवश करे। संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता से जनवरी, 1949 ई. को युद्ध विराम हुआ। युद्ध विराम के समय पश्चिम का कुछ भाग पाकिस्तान के अधिकार में था। यह क्षेत्र आज भी पाकिस्तान के अधिकार में है।

विलय के समय प्रधान मंत्री नेहरू ने घोषणा की थी कि जैसे ही स्थिति सामान्य होगी जनता की इच्छा जानकर कश्मीर के भारत संघ में विलय को वैधता दे दी जाएगी। युद्ध विराम के बाद लोकतांत्रिक ढंग से निर्मित जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा ने कश्मीर के भारत में विलय का अनुमोदन कर दिया। इस प्रकार नेहरू की इच्छा पूर्ण हुई। परन्तु पाकिस्तान जनमत की माँग करता रहा और कहता रहा कि राज्य की जनता निश्चय करे कि वे भारत अथवा पाकिस्तान में मिलना चाहती हैं। यह भारत स्वतंत्रता अधिनियम के विरुद्ध है क्योंकि इस के अनुसार विलय के सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार महाराजा का था।

« महाराजा ने अपने कश्मीर राज्य को भारत में शामिल करने का निर्णय लिया था और जनता ने अपनी संविधान भरा द्वारा इसका अनुमोदन कर दिया था। इसलिए इस विषय में पाकिस्तान को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं था। पाकिस्तान द्वारा कश्मीर के लगभग एक चौथाई भाग पर गैर-कानूनी अधिकार एक ऐसी समस्या है जो आज तक बनी हुई है। यही समस्या आज भी कश्मीर समस्या के रूप में विद्यमान है। 

भारत में विलय होने वाली देशी रियासतों की संख्या 562 थी इनमें कुछ बड़ी, छोटी और मध्य आकार की रियासतें थी, जिन्हें विभिन्‍न अथक प्रयासों से एक सूत्र में भारत है। संघ के रूप में बाँधा गया। 

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