मानव भूगोल की प्रकृति

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प्रस्तावना –

नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे मानव भूगोल की प्रकृति | मानव भूगोल। मानव भूगोल की प्रकृति और सिद्धांत।मानव भूगोल की परिभाषा।रेटजेल के अनुसार,जीन बून्स के अनुसार,फ्रान्सीसी मानव भूगोलवेत्ता विडाल डी. ला. ब्लाश,हंटिंगटन के अनुसार,डेविस के अनुसार,मानव भूगोल का विषय क्षेत्र,मानव भूगोल के तथ्य के वारे में बात करेंगे |

मानव भूगोल की प्रकृति और सिद्धांत

मानव भूगोल की प्रकृति-

मानव भूगोल की प्रकृति आधुनिक भूगोल से सम्बन्धित तथ्यों का अध्ययन कराता है। मानव भूगोल, भूगोलशास्त्र की एक प्रमुख शाखा है, जिसमें. पक्ष को केन्द्र मानकर आर्थिक एवं प्राकृतिक वातावरण का अध्ययन किया जाता है। यथार्थत: मानव का प्राकृतिक वातावरण से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। किसी प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियाँ भू-रचना, जलवायु, मिट्टी, वनस्पति, जल राशियाँ, खनिज सम्पत्ति, जीव-जन्तु आदि का मानव के रहन-सहन, कार्य-कलापों और आचार-विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ता है।

एक ओर मानव के क्रिया-कलाप और आचार-विचार प्राकृतिक वातावरण से प्रभावित होते हैं तो दूसरी ओर मानव भी अपने क्रियाकलापों द्वारा प्राकृतिक वातावरण को प्रभावित करता है और आवश्यकतानुसार उनमें परिमार्जन एवं परिवर्तन करता है। साथ ही सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण भी करता है। 

मानव भूगोल की परिभाषा-

आधुनिक भूगोल के अध्ययन में केवल वर्णानात्मक ही नहीं, बल्कि व्याख्यात्मक दृष्टिकोण अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता है। मानव एवं प्राकृतिक वातावरण की पारस्परिक क्रियाओं एवं प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप सांस्कृतिक पर्यावरण का निर्माण एवं विकास होता है। अतः सांस्कृतिक तथ्यों की व्याख्या करने पर मानव एवं प्राकृतिक वातावरण का पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट होता है।

चूँकि मानवीय क्रियाएँ और प्राकृतिक वातावरण को दशाएँ परिवर्तनशील हैं । अत: इनका पारस्परिक सम्बन्ध भी परिवर्तनशील हो जाता है। मानव तथा प्राकृतिक वातावरण के इस पारस्परिक परिवर्तनशील सम्बन्ध का विस्तृत अध्ययन ही “मानव भूगोल है। उन्‍नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में जर्मनी के प्रख्यात फ्रेडरिक रैटजेल को मानव भूगोल का जनक कहा जाता है | सन् 1882 में  एंथरोपोजियोग्राफी Anthropogeography) नामक ग्रंथ प्रकाशित कर मानव भूगोल का प्रारंभ किया।

 रेटजेल के अनुसार-

 रेटजेल के अनुसार मानव सर्बत्र वातावरण से सम्बन्धित होता है जो स्वयं भौतिक दशाओं का योग है

अमेरिकी भूगोल विदुषी कुमारी ई सी सेम्पुल-

अमेरिकी भूगोल विदुषी कुमारी ई सी सेम्पुल ने इस विचारधारा को प्रोत्साहन दिया। इनके विचार में : प्राकृतिक वातावरण तथा मानव दोनों ही क्रियाशील हैं। जिनमें प्रत्येक क्षण परिवर्तन होता रहता है। इन्होंने मानव भूगोल की निम्नलिखित परिभाषा दी- क्रियाशील मानव एवं गतिशील पृथ्वी के परिवर्तनशील सम्बन्धों का अध्ययन ही मानव भूगोल है।’

फ्रान्सीसी मानव भूगोलवेत्ता विडाल डी. ला. ब्लाश-

फ्रान्सीसी मानव भूगोलवेत्ता विडाल डी. ला. ब्लाश ने मानव भूगोंल को भौगोलिक विज्ञान के सम्मानित तने का अभिनव अंकुर माना है और एक विज्ञान के स्तर पर रखा। इनके मतानुसार- “मानव जाति एवं मानव समाज एक प्राकृतिक वातावरण के अनुसार ही विकसित होते हैं और मानव भूगोल इसके अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करता है !” “मानव पृथ्वी एवं मानव के पारस्परिक सम्बन्धों को एक नयी संकल्पना प्रदान करता है। वह पृथ्वी को नियन्त्रित करने वाले भौतिक नियमों तथा पृथ्वी पर निवास करने वाले जीवों के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्धों का संश्लेषणात्मक ज्ञान होता हैै

जीन बून्स के अनुसार-

जीन बून्स के अनुसार- “मानव भूगोल उन सभी तथ्यों का अध्ययन है, जो मानव के क्रियाकलापों से प्रभावित हैं और जिन्हें हमारे ग्रह के’ धरातल पर घटित होने वाली घटनाओं में से छांटकर एक विशेष श्रेणी में रखा जा सकता है।

हंटिंगटन के अनुसार

हंटिंगटन के अनुसार-“मानव भूगोल को प्राकृतिक वातावरण तथा मानवीय क्रियाकलापों एवं गुणों के सम्बन्ध के स्वरूप और वितरण के अध्ययन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है !”

डेविस के अनुसार

डेविस के अनुसार“मानव भूगोल मुख्यत प्राकृतिक वातावरण और मानव क्रियाकलाप दोनों ही के पारस्परिक सम्बन्ध और उस सम्बन्ध के परिणाम के पार्थिव स्वरूप की खोज है अथवा प्राकृतिक वातावरण के नियन्त्रण को उनके आधार के रूप में सिद्ध करने का प्रयास है ।”

 उपर्युक्त सभी परिभाषाओं के अध्ययन से मानव के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से एक ही विचारधारा प्राप्त होती है– “मानव भूगोल वह विज्ञान है, जिसके अध्ययन का एक पक्ष मानव तथा उसके क्रियाकलाप तथा दूसरा . पक्ष उसके प्राकृतिक वातावरण की शक्तियाँ एबं उनका प्रभाव है ।” इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव भूगोल में किसी प्रदेश के मानव समुदाय एवं उनके प्राकृतिक वातावरण की शक्तियों, प्रभावों तथा दोनों पक्षों की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है|

किसी प्रदेश में निवास करने वाले मानव समुदायों तथा वहाँ के प्राकृतिक एवं सांस्कृतिक वातावरण में परस्पर कार्यात्मक सम्बन्ध होता है। अत: विभिन्‍न प्रदेशों के मानव समुदायों तथा उसके जीवन ढंग का अध्ययन मानव भूगोल है। वास्तव में विश्व की समस्त क्रियाओं का केन्द्र मानव है, जो सभी प्रकार के प्राकृतिक तत्त्वों ( भूमि, जल मिट्टी, खनिज, वनस्पति एवं जीव) तथा सांस्कृतिक तत्त्वों (जनसंख्या, मकान, बस्ती, कृषि, विनिर्माण, उद्योग है| तथा परिवहन का उपयोग करता है और यही मानव के अध्ययन का केन्द्र बिन्दु है।

मानव भूगोल का विषय क्षेत्र

 आज मानव भूगोल का विषय क्षेत्र अत्यन्त व्यापक हो गया है। भूगोल कि इस शाखा में विभिन्‍न प्रदेशो में निवास करने वाले जनसंख्या के समूहों एवं उनकी प्राकृतिक परिस्थितियों के पारस्परिक सम्बन्धों की तार्किक विवेचना की जाती है। अत: इसके अध्ययन के अन्तर्गत निम्नलिखित पक्षों को सम्मिलित किया जाता है-

  1. किसी प्रदेश की जनसंख्या तथा उसकी क्षमता और मानव भूमि अनुपात ।
  2. उस प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों का मूल्यांकन।
  3. प्रदेश में निवास करने वाले मानव समुदाय द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के शोषण एवं उपयोग से निर्मित सांस्कृतिक भू-दृश्य ।
  4. उस प्रदेश के प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक वातावरणों के कार्यात्मक संबंधों से उत्पन्न मानव वातावरण समायोजन का प्रारूप तथा
  5. वातावरण समायोजन का समयानुसार विकास तथा इसकी दिशा का इतिहास

इस प्रकार धरातल पर सभी मानवीय क्रियाकलापों का एक प्रदेश स्तर पर अध्ययन करना-मानव भूगोल का विषय क्षेत्र कहा जाता है। मानव स्वयं एक स्वतंत्र भौगोलिक कारक है, जो अपने प्राकृतिक वातावरण द्वारा प्रदत्त संसाधनों का उपयोग करके अपना विकास करता है। अपने जीविकोपार्जन के लिए वह कृषि, आखेट, मत्स्याखेट, वन पदार्थ संग्रह, खनन तथा अन्य प्रकार के आजीविका के साधनों को अपनाता है।

रहने के लिंए घर, आवागमन के लिए सड़कें तथा रेलमार्गों का निर्माण, सिंचाई के लिए नहरें खोदना, मरुभूमि में वनस्पतियों उगाकर हरा भरा दृश्य निर्मित करना, नदियों में बाँध बनाकर तथा पर्वतों में सुरंग खोदकर इनकी अपूराम्यता समाप्त कर अपने विकास हेतु उपयोगी जन्म लेता है। इस प्रकार की समस्त मानवीय क्रियाओं को सांस्कृतिक भू-दृश्य की संज्ञा दी जाती है, जो मानव की बौद्धिक क्षमता के परिणाम हैं।

मानव भूगोल के अंतर्गत इन समस्त मानव निर्मित सांस्कृतिक भू-दृश्यों की विवेचना के साथ-साथ इस तथ्य को भी दृष्टि में रखा जाता है कि किसी प्रदेश के प्राकृतिक वातावरण का वहाँ की मानवीय क्रियाओं अर्थात्‌ उसकी आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्रियाओं पर कितना, कैसा और क्‍या प्रभाव पड़ता है।

मानव भूगोल के विषय क्षेत्र के अन्तर्गत उन विषमताओं को भी सम्मिलित किया जाता है जो विश्व के, विभिन्‍न भागो में निवास करने वाले मानव समुदायों की शारीरिक रचनाओं, बेश-भूषा, भोजन के प्रकार गृहनिर्माण के प्रकार तथा निर्माण सामग्रियाँ, आर्थिक व्यवसायों तथा जीवनयापन के ढंग में पायी जाती है।

इसके साथ ही विभिन प्रदेशों के मानव समुदायों की कार्यकुशलता, स्वास्थ्य, शिक्षा, कला, विज्ञान तथा तकनीकी शासन प्रणाली तथा धार्मिक मान्यताओं को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। उदाहरणार्थ- यूरोपीय अधिक कार्यकुशलता तथा आविष्कारक प्रवृत्ति के होते हैं। जबकि न्यूगिनी के पापुआन सुस्त होते हैँ। इनमें से कुछ विषमताएं जैविक होती हैं तथा कुछ प्राकृतिक वातावरण की भिन्‍नता के कारण होती हैं.।

उदाहरण के लिए जहाँ कृषि योग्य भूमि एवं उत्तम जलवायु होगी, वहीं कृषि कार्य किया जा सकता है। इसी प्रकार जहाँ किसी खनिज पैदर्थ की उपलब्धि होगी, वहीं खनन कार्य को उद्यम के रूप में अपनाया जा सकता है । जलवायु की भिन्‍नता के कारण ही वस्त्रों के प्रकार में अन्तर मिलते हैं। कुछ भिन्‍नताएँ सांस्कृतिक प्रगति के कारण मिलती हैँ। समान प्राकृतिक वातावरण में निवास करने वाले कुछ मानव समुदाय ने आधुनिक मशीनों औजारों का प्रयोग अधिक बढ़ा लिया है तथा कुछ समुदाय अभी तक पुराने ढंग के औजारों का प्रयोग कर रहे हैं।

उपर्युक्त सभी विषमताएँ या तो प्राकृतिक वातावरण की शक्तियों अथवा मानवीय कार्यक्षमता के कारण ही दृष्टिगोचर होती हैं। इस प्रकार मानव भूगोल का विषय क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसकी व्याख्या करना एक कठिन कार्य है। इस सम्बन्ध में विभिन्‍न विद्वानों द्वारा विभिन्‍न मत प्रस्तुत किये गये हैं। यद्यपि उनके उद्देश्य में लगभग समानता परिलक्षित होती है।

हंटिंगटन ने भौतिक दशाओं (पृथ्वी की ग्लोबीय स्थिति, भूमि के प्रकार, जलरशशियाँ, मिट्टी एवं खनिज तथा जलवायु) का प्रभाव प्राकृतिक वनस्पति एवं पशुओं पर बताया है और इन प्राकृतिक परिस्थितियों का गहरा प्रभाव मानव की भौतिक आवश्यकताओं (भोजन एवं जल, वस्त्र, शरण, औजार एवं परिवहन के साधन) आधारभूत व्यवसाय ( आखेट, पशुचारण, कृषि, खनन, लकड़ी काटना, उद्योग एवं व्यापार) (कार्यकुशलता, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक प्रेरण, आमोद-प्रमोद) तथा उच्च आवश्यकताएँ (शासन प्रणाली, शिक्षा, विज्ञान, धर्म, कला एवं साहित्य) आदि पर बताया है। जैसा कि चार्ट में परिलक्षित होता है।

मानव भूगोल के तथ्य-

शासन प्रणाली तथा धार्मिक मान्यताओं को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। उदाहरणार्थ- यूरोपीय अधिक॑ कार्यकूशलता तथा आविष्कारक प्रवृत्ति के होते हैं। जबकि न्यूगिनी के पापुआन सुस्त होते हैँ। इनमें से कुछ विषमताएं जैविक होती हैं तथा कुछ प्राकृतिक वातावरण की भिन्‍नता के कारण होती हैं.। उदाहरण के लिए जहाँ कृषि योग्य भूमि एवं उत्तम जलवायु होगी, वहीं कृषि कार्य किया जा सकता है।

इसी प्रकार जहाँ किसी खनिज पैदर्थ की उपलब्धि होगी, वहीं खनन कार्य को उद्यम के रूप में अपनाया जा सकता है । जलवायु की भिन्‍नता के कारण ही वस्त्रों के प्रकार में अन्तर मिलते हैं। कुछ भिन्‍नताएँ सांस्कृतिक प्रगति के कारण मिलती हैँ। समान प्राकृतिक वातावरण में निवास करने वाले कुछ मानव समुदाय ने आधुनिक मशीनों औजारों का प्रयोग अधिक बढ़ा लिया है तथा कुछ समुदाय अभी तक पुराने ढंग के औजारों का प्रयोग कर रहे हैं।

उपर्युक्त सभी विषमताएँ या तो प्राकृतिक ढतावरण की शक्तियों अथवा मानवीय कार्यक्षमता के कारण ही दृष्टिगोचर होती हैं।इस प्रकार मानव भूगोल का विषय क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसकी व्याख्या करना एक कठिन कार्य है।

इस सम्बन्ध में विभिन्‍न विद्वानों द्वारा विभिन्‍न मत प्रस्तुत किये गये हैं। यद्यपि उनके उद्देश्य में लगभग समानता परिलक्षित होती है। हंटिंगटन ने भौतिक दशाओं (पृथ्वी की ग्लोबीय स्थिति, भूमि के प्रकार, जलरशशियाँ, मिट्टी एवं खनिज तथा जलवायु) का प्रभाव प्राकृतिक वनस्पति एवं पशुओं पर बताया है 

इन प्राकृतिक परिस्थितियों का गहरा प्रभाव मानव की भौतिक आवश्यकताओं (भोजन एवं जल, वस्त्र, शरण, औजार एवं परिवहन के साधन) आधारभूत व्यवसाय ( आखेट, पशुचारण, कृषि, खनन, लकड़ी काटना, उद्योग एवं व्यापार) (कार्यकुशलता, स्वास्थ्य, सांस्कृतिक प्रेरण, आमोद-प्रमोद) तथा उच्च आवश्यकताएँ (शासन प्रणाली, शिक्षा, विज्ञान, धर्म, कला एवं साहित्य) आदि पर बताया है। जैसा कि चार्ट में परिलक्षित होता है। 

विडाल डी. ला ब्लाश ने मानव भूगोल के विषय क्षेत्र को निम्नलिखित तीन वर्गों में रखे हैं

  1. जनसंख्या का वितरण, घनत्व, मानव समूह, जीविकोपार्जन के साधन और जनसंख्या के घनत्व के सम्बन्ध तथा बृद्धि के कारण।
  2. सांस्कृतिक तत्त्वों में वातावरण समायोजन, औजार॑, जीविकोपार्जन के साधन, गृह निर्माण की सामग्री, मानव अधिवास तथा सभ्यता और संस्कृति का विकास।
  3. परिवहन एवं भ्रमण के अन्तर्गत मानव एवं पशु परिवहन एवं गाड़ियाँ, सड़कें, रेल एवं महासागरीय परिवहन। इसके अतिरिक्त जातियों, आविष्कारों के प्रसार तथा नगरों का भी उल्लेख किया है।

फिंच एवं ट्रिवार्था ने अपनी पुस्तक ‘एलीमेण्ट्स ऑफ ज्यॉग्राफी” में भौगोलिक तथ्यों को भूगोल के अध्ययन के क्षेत्र के रूप में विभाजित किया है । उनके मतानुसार,-जलवायु, धरातल, मिट्टी, खनिज पदार्थ, प्रवाहित नदी, वनस्पति एवं पशु मानव को प्रभावित करते हैं, जो मानव की जनसंख्या, मकान एवं बस्ती, उत्पादन की दशाएं तथा परिवहन के साधन एवं व्यापार को निर्धारित करते हैं। ट्रिवार्था के इस व्याख्यात्मक विवर॑ण को दोषपूर्ण बताया गया है, क्योंकि इसमें उच्च आवश्यकताओ पर ध्यान नहीं दिया गया है। एस. एम. डिकेन एवं एफ. आर. पिट्स ने मानव भूगोल विषय के क्षेत्र को निम्नलिखित पाँच वर्गों में बदल किया है” ‘

आधारभूत तथ्य-  जनवर्ग स्थान, काल एवं मानव भूगोल का विकास।

मानव-  स्वदेश एवं प्रारम्भिक प्रवास, वर्तमाने में जनसंख्या में वृद्धि एवं प्रवास जनसंख्या का वर्तमान बितरण तथा भावी जनसंख्या।

स्थान-  वातावरण एवं मानव।

मानव द्वारा पृथ्वी का उपयोग–  जीवन निर्वाह, क्रृषि, पशुपालन, वन,-घास, मकान, बस्ती, खनिज, नगर निर्माण, उद्योग, परिवहन मार्ग तथा भूमि उपयोग एवं संरक्षण।

विश्व की ओर-  मानव एवं सागर, विश्व का व्यापार, व्यापारिक मार्ग, मानव वर्ग एवं राष्ट्र विचारों का प्रसार तथा मानव भूगोल में तकनीकी प्रवेश। उपर्युक्त विद्वानों की विचारधाराओं की समीक्षा के बाद मानव भूगोल विषय के क्षेत्र के सम्बन्ध में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं

मानव भूगोल के अध्ययन क्षेत्र का मुख्य केन्द्र मानव है, जिस पर उसके प्राकृतिक वातावरण का प्रारम्भ काल से ही प्रभाव पड़ता रहा है । मानव भी इस प्राकृतिक वातावरण की शक्तियों और प्रभावों के साथ समायोजन करता रहा है। जैसे-पर्वतों, पठारों और मैदानों के साथ समायोजन, जलवायु के साथ समायोजन, वनस्पति तथा पशु जगत्त से सम्बन्ध मिट्टियों और खनिजों से सम्बन्ध तथा जल राशियों से सम्बन्ध आदि।

अपनी प्रतिक्रियाओं तथा वातावरण समायोजन से मानव अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। प्राकृतिक वातावरण के तत्त्व , सम्मिलित रूप से मानवीय क्रियाओं को प्रभावित करते हैं । मानव इन तत्त्वों में अपने हित के अनुकूल कुछ अंशों तक संशोधन तथा परिवर्तन भी करता है। इस प्रकार मानव न तो प्राकृतिक वातावरण के प्रभावों पर विजय ही पा सका है और न ही इसके नियन्त्रण से मुक्ति प्राप्त कर सकता है।

मानव स्वयं प्राकृतिक वातावरण के एक तत्त्व के रूप में सांस्कृतिक वातावरण का जनक है। इसलिए “मानव भूगोल के विषय क्षेत्र में मानव जातियों, जनसंख्या का वितरण, घनत्व तथा घनत्वों को प्रभावित करने वाले तथ्य, नर-नारी अनुपात, आयु वर्ग, स्वास्थ्य तथा कार्यक्षमता आदि का अध्ययन समाहित है। मानवीय प्रतिक्रियाओं के अन्तर्गत मानव कौ भौतिक आवश्यकताएँ, अर्थव्यवस्था का प्रारूप प्राविधिक प्रगति तथा उच्च आवश्यकताओं का अध्ययन सम्मिलित किया जाता है।

साथ ही किसी प्रदेश के मानव समुदाय के आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास के लिए उस प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों का सही मूल्यांकन तथा उसका विवेकपूर्ण शोषण और प्रदेश के भावी वियोजन का अध्ययन भी मानव भूगोल के विषय क्षेत्र में सम्मिलित किया जाता है। मानव भूगोल की कई शाखाएँ हो गयी हैं।अत: इसका विषय क्षेत्र सीमित होता जा रहा है। अमरीकी भूगोलवेत्ता कार्ल सावर मे मानव भूगोल को सांस्कृतिक भूगोल की संज्ञा दे डाली है।

प्रो. जे. एच. लेबल, प्रो. जेलिंस्की-

प्रो. जे. एच. लेबल, प्रो. जेलिंस्की तथा अन्य पश्चिमी भूगोलवेत्ताओं ने मानव भूगोल को पृथ्वी तथा मानव धर्म एवं मानव जीवन के मूल्यों को प्रतिस्थापित करके उन्हें कल्याणकारी बनाने वाला विषय मान्य किया है, जो प्राकृतिक वातावरण तथा.. मानवीय कार्यों के मध्य भव्यात्मक, किन्तु सुसम्बन्ध, सामंजस्य स्थापित करता है । यही मानव भूगोल का प्रत्यक्ष विषय क्षेत्र हैं।

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