जैन मत,जैन धर्म, JAIN DHARAM,

जैन मत,जैन धर्म, JAIN MAT,JAIN DHARAM,MP BOARD 2024

प्रस्तावना –

नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे जैनमत के बारे में पढ़ेंगे |

जैन मत

जैन मत की भूमिका-

ईसा पूर्व छठवी शताब्दी में उत्तर वैदिक काल के उत्तरार्ध में कर्मकाण्डीय धर्म का स्वरूप बहुत कुछ जटिल और दुष्कर हो गया था। धीरे-धीरे जनता को धर्म के इस स्वरूप में घुटन अनुभव होने लगा था। विचारशील॑ व्यक्तियों ने विरोध करना प्रारम्भ कर दिया। उपनिषदों में भी कर्मकाण्डीय धर्म की गौणता और व्यर्थता का उल्लेख है। धर्म के अनेक पहलू थे जो जनता के बौद्धिक और धार्मिक विकास में बाधा डाल रहे थे। बेदवाद, देववाद, कर्मकाण्ड आदि ऐसे कारण थे जिनकी प्रतिक्रिया स्वरूप नवीन धार्मिक जागृति का संचार हुआ।   

जैन मत की प्राचीनता-

जैन मत अत्यन प्राचीन है। कुछ विद्वान इसे सैन्धव सभ्यता से जोड़कर देखते हैं तथा इसका सम्बन्ध पशुपति या योग॑मूर्ति के साथ देखते हैं। वैदिक साहित्य से भी जैन मत के प्रवर्तकों का नाम आभासित होता है। यजुर्वेद तथा अधर्ववेद में भी जैन मत का प्रवर्तक ऋषभ देव का उल्लेख मिलता है ब्राह्मण ग्रंथ, विष्णु पुराण और भागवत पुराण ने भी ऋषभ देव का उल्लेख मिलता है। ऋषभ देव जैन मत के प्रवर्तक थे इन तथ्यों से यह ज्ञात होता है कि जैन मत वैदिक धर्म के समान ही प्राचीन है। 

जैन मत का तीर्थकर-

जैन मत के संस्थापक और प्रवर्तकों को तीर्थकर कहा गया है तीर्थंकर का अर्थ है वे ज्ञान प्राण महात्मा जिनके द्वारा निर्मित विधियों द्वारा मनुष्य भवसागर को पार कर सकता है । तीर्थकर ऐसे महान पुruष हैं जे जन साधारण के लिए गुर व पथ प्रदर्शक है जैन सम्प्रदाय में 24 तीर्थंकर हुए जिनके द्वारा दिये गये उपदेशों द्वाए हो जैन सम्प्रदाय का विकास हुआ। जैन सम्रदाय के प्रमुख संस्थापक एवं प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव थे। तेहसवे तीर्थंकर पार्वनाथ के समय से हो जैन सम््रदाय का शुद्ध स्वरूप प्रकाश में आया। 

 वर्धमान महावीर ( 599 ई. पू -527 ई. पू.) 

जीवन परिचय-

महावीर का जन्म लगभग 600 ई. पू में वैशाली के कुण्डग्राम में हुआ था इनके पिता सिद्धार्थ एवं माता त्रिशला देवी थी। महावीर का प्रारम्भिक नाम वर्धमान था व कुंलगोत्र कश्यप था। बाल्यावस्था एवं युवावस्था में वर्धमान को ज्ञान एवं कला के सभी क्षेत्रों में राजोचित शिक्षा दी गई। इनका विवाह राजकुमारी यशोदा से हुआ था। तीस वर्ष की आयु तक महावीर सामान्य गहस्थ के रूप में जीवन व्यतीत करते रहे किन उनका मन अत्यधिक चिन्तनशौल होता गया।

अपने माता-पिता की मृत्यु के उपरान्त अपने बढ़े भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा लेकर उन्होंने घर त्याग दिया एवं सत्य कौ खोज में सन्यासी होकर तेरह वर्ष की घोर तपस्या के बाद शाल वृक्ष के नीचे उनको कैवल्य निर्मल ज्ञान को प्राप्ति हुई।  कैवल्य प्राप्ति के पश्चात्‌ महावीर अपने जान और अनुभव को सम्पूर्ण उत्तर भारत में प्रचारित करने लगे।

वज्जि, अंग, मगध, वैशाली, कौशल, पश्चिम बंगाल, कांशी आदि जनपदों में पैदल यात्रा करके अनेक कष्टों को सहकर उन्होंने ज्ञान और सदचार को शिक्षा दी। इस बीच अन्य मतावलम्बियों से अनेक वाद-विवाद और शास्त्रार्थ हुए। 72 वर्ष की आयु में आधुनिक पटना जिले के पावापुरी में मल्‍ल गणराज्य के प्रमुख हस्तिपाल के राज प्रसाद में महावीर का निर्वाण हुआ

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