प्रस्तावना –
नमस्कार प्यारे दोस्तों में हूँ, बिनय साहू, आपका हमारे एमपी बोर्ड ब्लॉग पर एक बार फिर से स्वागत करता हूँ । तो दोस्तों बिना समय व्यर्थ किये चलते हैं, आज के आर्टिकल की ओर आज का आर्टिकल बहुत ही रोचक होने वाला है | क्योंकि आज के इस आर्टिकल में हम बात करेंगे ग्रामीण विकास,Rural Demployment,ग्रामीण विकास की आवश्यकता या महत्व,लाभ,सीमायें /हानियाँ,स्रोत,उपाय,उद्देश्य,संगठन,नीतियाँ के वारे में बात करेंगे |
ग्रामीण विकास (Rural Demployment)
ग्रामीण विकास की आवश्यकता या महत्व-
ग्रामीण विकास 2001 की जनगणना के अनुसार भारत की 102.87 करोड़ की जनसंख्या में 74 करोड़ जनसंस् ग्रामीण है। अर्थात् 72.2 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण है और 27.8 प्रतिशत जनसंख्या शहरी है। जनसंख्या बहुल देश होने के कारण ही महात्मा गाँधी कहते थे कि भारत गाँवों का देश है और गाँवों का बिकास किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता।
अभी भी गाँव की लगभग 26 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी जीवन यापन करती है जिसे जीवन की बुनियादी सुविधाएँ (भोजन, वस्त्र, आवास, शिक्षा तथा आवश्यक मात्रा में उपलब्ध नहीं होती है। किसी भी राष्ट्र का पुनर्निर्माण ग्रामीण विकास के बिना नहीं हो सकता। योजना आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञ दल के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन पोषण प्राप्त होना जरूरी है। इससे कम पोषण प्राप्त करने वाला व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे माना जाता है। ग्रामीण जनसंख्या को आज अनेक समस्याओं से जूझना पड़ रहा है जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं
-
- रोजगार के अवसर की अपर्याप्तता,
- आय का न्यून स्तर,
- कृषि पर बढ़ता हुआ बोझ
- न्यून जीवन स्तर,
- परिवहन तथा संचार के साधनों का अभाव,
- शिक्षा सुविधाओं का अभाव,
- चिकित्सा सुविधाओं का अभाव,
- शहरों की भाँति नागरिक सुविधाओं का अभाव (शुद्ध जल की आपूर्ति, प्रकाश, गटर, मनोरंजन, वाचनालय आदि),
- आवास सुविधाओं का अभाव,
- उचित मूल्य की दुकानों का अभाव,
- बैंकिंग सुविधाओं का अभाव इत्यादि।
इन समस्याओं का हल जब तक नहीं किया जाता तब तक ग्रामीण क्षेत्रों का सही अर्थ में विकास नहीं हो सकता। ग्रामीण क्षेत्रों तथा शहरी क्षेत्रों के लोगों को प्राप्त सुविधाओं में बहुत असंतुलन है। शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में जन्मदर तथा मृत्युदर दोनों अधिक हैं।
भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगार लोगों की संख्या लगभग 2 करोड़ है जो कुल ग्रामीण श्रम शक्ति के 8 प्रतिशत के लगभग है। मौसमी बेरोजगारी तथा अद्धबेरोजगारी तो प्रत्येक गाँव में पाई जाती है। यदि हमें भारतीय अर्थव्यवस्था का पुनरुत्थान सही अर्थ में करना है। ग्रामीण क्षेत्रों में अधो संरचनात्मक विकास पर विशेष बल देना होगा। जीवन की बुनियादी आवश्यकता सम्बन्धी सारी सुविधाएँ उपलब्ध करानी होगी।
ग्रामीण विकास का अर्थ-
ग्रामीण क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के लिए ग्रामीण साक्षरता, स्वास्थ्य, भूमि-सुधार, विद्युत, सिंचाई, विपणन, परिवहन संचार आदि पर ध्यान केन्द्रित कर विकास की प्रक्रिया अपनाना ही ग्रामीण विकास है। ग्रामीण विकास की प्रक्रिया ग्रामीण सामाजिक, आर्थिक क्षेत्रों में संरचनात्मक परिवर्तन की प्रक्रिया है।
ग्रामीण विकास के प्रमुख क्षेत्र-
कृषि साख कृषि साख का अर्थ-
कृषि साख का अर्थ ग्रामीण साख से ही है, जिसकी आवश्यकता कृषि कार्य करने से होती है। यह आवश्यकता बीज, खाद ब यंत्र खरीदने अथवा मालगुजारी देने या कृषि संनंधी अन्य कार्य करने के लिए हो सकती है।
स्वरूप-
अल्पकालीन, साख या ऋण (भुगतान अवधि 15 माह), मध्यकालीन ऋण (15 माह से 5 वर्षों तक), दीर्घकालीन ऋण (5 वर्ष से 20 वर्ष तक)।
स्रोत-
भारत में कृषि वित्त की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले स्रोतों को प्रमुख रूप से दो भागों में बाँटा खा सकता है
(अ) संस्थागत स्रोत
-
- सहकारी साख समितियाँ,
- भूमि बन्धक या भूमि विकास बैंक
- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
- व्यापारिक बैंक
- सरकार
- भारतीय स्टेट बैंक
- अग्रणी बैंक योजनारिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया
- राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक ।
- राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक
(व) गैर-संस्थागत स्रोत
- साहूकार अथवा महाजन
- मित्र एवं संबंधी
- व्यापारी एव कमीशन चिन्ह।
कृषि विपणन : अर्थ-
कृषि विपणन से तात्पर्य कृषक और व्यापारियों के बीच कृषि पदार्थों के क्रय-विक्रय से है। वास्तव में कृषि विपणन में श्रेणीकरण, प्रभावीकरण, एकत्रीकरण एवं संरक्षण आदि अनेक क्रियाओं को शामिल किया जाता है। दूसरे शब्दों में कृषि उपज का कृषकों एवं व्यापारियों के बीच क्रय-विक्रय ही कृषि विपणन कहलाता है।
भारत में कृषि विपणन की वर्तमान व्यवस्था अग्र प्रकार है गाँवों में बिक्री मेलों में बिक्री, मण्डियों में बिक्री, सहकारी समितियों के माध्यम से बिक्री, सरकारी खरीद तथा फुटकर विक्रेताओं के माध्यम से बिक्री की जाती है।
समस्यायें –
भारत में कृषि विपणन की प्रमुख समस्यायें हैं मध्यस्थों की अधिकता, मण्डियों की कुरीतियाँ, बाजार व्ययों में अधिकता, श्रेणीकरण एवं प्रमापीकरण का अभाव, भण्डार सुविधाओं का अभाव, परिवहन की सुविधाओं का अभाव, मूल्य संबंधी सूचनाओं का अभाव, वित्तीय सुविधाओं का अभाव, उपज की घटिया किस्म तथा कृषि आधिक्य का कम होना।
उपाय-
भारत में कृषि विपणन की समस्याओं को दूर करने के लिए सरकार द्वारा निम्न कदम ‘ उठाये गये हैं नियमित मण्डियों की स्थापना, श्रेणी विभाजन एवं प्रमापीकरण प्रमाणित बाट एवं नाप तौल, विपणन सूचनाओं का प्रकाशन एवं प्रसारण, भण्डार गृहों की सुविधा विपणन, अनुसंधान एवं सर्वेक्षण, परिवहन साधनों का विकास, विपणन कर्मचारियों को प्रशिक्षण सुविधाएँ, वित्तीय सुविधाएँ, सहकारी विपणन समितियाँ तथा मूल्य समर्थन नीति अपनाना ।
सहकारिता की भूमिका : सहकारिता का अर्थ-
सहकारिता स्वेच्छा से बनाया है आऔ एक व्यापारिक उपक्रम है, जिसका देश्य पारस्परिक लाभ प्राप्त करना है। इस प्रकार सहकारिता से विपणन संबंधी कार्यों को पूरा करने के लिए बनाये जाते हैं। जिससे कृषक अपनी वस्तुओं को बेचकर पारस्परिक लाभ कमाये। इस प्रकार यह एक व्यापारिक संस्था है।
उद्देश्य-
सहकारिता के प्रमुख उद्देश्य हैं
- अपने सदस्यों को उनकी वस्तु का उचित प्रतिफल दिलाना
- संग्रहण की सुविधा प्रदान करना ,
- आवश्यकता के समय वित्तीय ऋण देना,
- बाजार सम्बन्धी सूचनाओं की जानकारी देना,
- मूल्यों में स्थिरता लाना एवं
- अपने सदस्यों को कच्चा माल, बीज, खाद आदि उपलब्ध कराना है। |
संगठन-
भारत में सहकारिता संगठन निम्नानुसार पाया जाता है-
- प्राथमिक सहकारी विपणन समितियाँ,
- केन्द्रीय सहकारी विपणन समितियाँ,
- प्रान्तीय सहकारी विपणन समितियाँ,
- राज्य सहकारी कृषि विपणन संगठन।
सहकारी विपणन की भूमिका-
सहकारी विपणन की भूमिका इस प्रकार हैमध्यस्थों का अंत करना, बाजार की बुराइयों से मुक्ति, ब्गीकरण की सुविधा, उचित तौल की सुविधा, संग्रहण की सुविधा, आर्थिक सहायता, एकत्रीकरण की सुविधा, सामूहिक सौदेबाजी तथा अधिक मूल्य सम्बन्धी लाभ आदि।
कृषि का विविधीकरण : आशय-
कृषि या फसलों के विविधीकरण से तात्पर्य है कि विभिन्न फसलों के अधीन कृषि भूमि का कितना हिस्सा है तथा इस हिस्से में समय के साथ क्या परिवर्तन हुआ है। दूसरे शब्दों में कृषि कार्य में लगे व्यक्तियों का ऐसा आधिक्य है, जो कृषि सम्बन्धी अन्य कार्यों और गैर कृषि कार्यो में, उत्पादनरत है। इसके अन्तर्गत संसाधनों का निम्न मूल्य, वस्तु मिश्रण से उच्च मूल्य, वस्तु मिश्रण का संचालन सम्मिलित होता है। इस प्रकार कृषि विविधीकरण के दो पहलू हैं
- फसलों के उत्पादन के विविधीकरण से संबंधित तथा
- श्रम शक्ति को खेती से हटाकर अन्य सम्बन्धित कार्यों जैसे पशुपालन, मुर्गीपालन व मत्स्यपालन आदि तथा गैर-कृषि क्षेत्र में लगाना।
नीतियाँ-
भारत सरकार ने कृषि विकास तथा विशेष रूप से फसल-विविधीकरण के सम्बन्ध में अनेक कदम उठाए हैं, जो इस प्रकार हैं
-
- उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में बागवानी के समन्वित विकास हेतु एक तकनीकी मिशन का आरम्भ
- राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना को कार्यान्वित करना,
- कपास के तकनीकी मिशन की कार्यवाही,
- पूँजी संबंधी आर्थिक सहायता का प्रावधान,
- वॉटर शेड विकास कोष का सृजन,
- बागवानी संबंधी विकास हेतु आधारभूत संरचना की मदद,
- कृषि विपणन को सुदृढ़ बनाना,
- बीजफसल बीमा,
- बीज बैंक योजना,
- सहकारी क्षेत्र का सुधार।
जैविक खेती : आशय-
कृषि की पर्यावरण हितैषी विधि या तकनीक को जैविक कृषि कहा जाता है। जैविक कृषि, कृषि की एक सम्पूर्ण पद्धति है, जिसमें पर्यावरणीय संतुलन का पुनर्निर्माण, मरम्मत तथा वृद्धि की जाती हैं । दूसरे शब्दों में जैविक खेती एक धारणीय खेती प्रणाली है, जो भूमि की दीर्घकालीन उपजाऊ शक्ति को बनाये रखती है तथा उच्चकोटि के पौष्टिक खाद्य का उत्पादन करने के लिए भूमि के सीमित संसाधनों का कम उपयोग करती है।
भ्रांतियाँ-
जैविक खेती संबंधी अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ पाई जाती हैं, जो इस प्रकार हैं
-
- जैविक खेती मितव्ययी नहीं होती
- रासायनिक खेती की तुलना में जैविक खेती का उत्पादन कम होना
- रासायनिक उर्वरकों तथा कीटनाशक दवाइयों का उपयोग जैविक खेती है:
- कूड़ा खाद का प्रयोग करने से पर्याप्त के कारकों की पूर्ति नहीं कर सकते
- केवल बड़े किसानों को ही जैविक खेती से मौद्रिक लाभ प्राप्त होता है।
लाभ –
जैविक खेती के प्रमुख लाभ निम्नांकित हैं
- जैविक खेतों में अधिक जैवीय सक्रियता तथा अधिक जैव-विविधता पाई जाती है।
- समय के साथ जैविक फसल के उत्पादन की दरों में बहुत कम परिवर्तन होते हैं तथा मिट्टी की उपजाऊ शक्ति भी खढ़ती है।
- जैविक खेतों की मिट्टी में अधिक पौष्टिक तत्व पाए जाते हैं तथा फसलों में विटामिन्स भी उच्चस्तर के पाये जाते हैं।
- जैविक किसान संश्लिष्ट रसायनों का प्रयोग नहीं करते। ये पेट्रोलियम आधारित होते हैं। पेट्रोलियम एक गैर-नवीनीकृत संसाधन है।
- परम्परागत फसलों की तुलना में जैविक फसलों में अधिक मात्रा में गौण मेटाबोलाइट्स पाये जाते हैं। यह वह पदार्थ है जो पौधों की प्रतिरक्षित प्रणाली का एक भाग होता है और कैंसर की हक मुकाबला करने में सहायक होता है।
सीमायें /हानियाँ-
जैविक खेती की प्रमुख हानियाँ निम्नांकित हैं-
- परम्परागत खेती की तुलना में जैविक खेती का उत्पादन औसतन 20% कम होता है।
- जैव्रिक उत्पादन गैर जैविक से अधिक महँगा होता हैं।
- जैविक किसानों को समय-समय पर नाशक जीवों के कारण फसल या उसके बड़े भाग से हाथ धोने पड़ते हैं।
- जैविक खेती अधिक श्रम-गहन होते हैं।
- जैविक खेती में पशु खाद का उपयोग किया जाता है, जो घातक जीवाणुओं को आश्रय देती है।
ग्रामीण विकास के लिये सरकार द्वारा चलाये गये कार्यक्रम-
स्वतत्रता के पश्चात् ग्रामीण विकास की रणनीति के अन्तर्गत सरकार द्वारा अनेक कार्यक्रम लागू किये गये हैं। इनमें निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं
ग्रामीण सुरक्षित पेयजल आपूर्ति कार्यक्रम-
इसके अन्तर्गत लगभग 1.52 लाख समस्या प्रधान गाँवों की पहचान की गई है। ऐसे गाँवों के लिए निम्नलिखित में से एक लक्षण का होना आवश्यक है
- ऐसे गाँव, जहाँ युक्ति संगत दूरी (लगभग 1.6 किलोमीटर) के भीतर पेयजल का सुनिश्चित स्रोत उपलब्ध नहीं है,
- ऐसे गाँव, जहाँ जल आपूर्ति के स्रोत से हैजा, टायफोयड, गहन कृषि आदि जैसे अल-जनित रोगों के संक्रमण की आशंका हो और
- ऐसे गाँव, जहाँ जल-स्रोत लवण, लौह तत्व या फ्लोगइड़ से प्रभावित हो। इसके पश्चात् इन गाँवों को त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम के अन्तर्गत पेयजल उपलब्ध कया गया है। ‘
त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम-
भारत सरकार ने 1972-73 प्रें त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति’ कार्यक्रम शुरू किया, जिसका उद्देश्य ग़ज्यों एबं केद् शासित प्रदेशों के समस्या प्रधान गाँवों में अलापूर्ति को सन्तुलित करना धा। पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम की न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम’ मैं सम्मिलित कर लिया गया और “त्वरित ग्रामीण जलापूर्ति कार्यक्रम’ को वापस ले लिया गया। वर्ष 1996-97 में इस कार्यक्रम को फिर से लागू किया गया।
इन्हें भी पढ़ें:-
- सन् 2001 की जनगणना के अठुसार भारत की कुल जनसख्या 102.87 करोड़ थी जिसमें 74 करोड़ जनसख्या ग्रामीण थी।
- योजना आयोग के अनुसार ग्रमीण क्षेत्र में प्रतिव्यक्ति 2,400 कैलोरी प्रतिदिन पोषण आवश्यक है।
- भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगार लोगों की संख्या लगभग 2 करोड़ है।
- कृषि साख में अल्पकालीन ऋण के भुगतान की अवधि 15 माह तक होती है।
कृषि साख के स्रोत-
-
- संस्थागत स्रोत
- सहकारी साख समितियाँ
- भूमि बन्धक या भूमि विकास बैंक
- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
- व्यापारिक बैंक’
- सरकार
- भारतीय स्टेट बैंक
- अग्रणी बैंक योजना
- रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया
- राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक
गैर-संस्थागत स्रोत
-
- साहुकार अथवा महाजन
- मित्र एवं संबंधी
- व्यापारी एवं कमीशन चिन्ह ।
भारत में कृषि विपणन की प्रमुख समस्याएँ-
मध्यस्थों की अधिकता, मण्डियों की कुरीतियाँ, बाजार ब्ययों में अधिकता, श्रेणीकरण एवं प्रमापीकरण का अभाव, भण्डार मुविधाओं का अभाव, परिवहन की सुविधाओं का अभाव, मूल्य संबंधी सूचनाओं का अभाव, वित्तीय म्रुविधाओं का अभाव, उपज की घटिया किस्म तथा कृषि आधिक्य का कम होना।
सहकारिता स्वेच्छा से सहकारिता का अर्थ-बनाया हुआए एक व्यापारिक उपक्रम है, जिसका उद्देश्य पारस्परिक लाभ प्राप्त करना है। इस प्रकार सहकारिता स्वेच्छा से संबंधी कार्यों को पूरा करने के लिए बनाए जाते हैं। जिससे कृषक अपनी वस्तुओं को बेचकर पारस्परिक लाभ कमाए । इस प्रकार यह एक व्यापारिक संस्था है ।
सहकारिता के प्रमुख उद्देश्य-
- अपने सदस्यों को उनकी वस्तु का उचित प्रतिफल दिलाना,
- संग्रहण की सुविधा प्रदान करना,
- आवश्यकता के समय वित्तीय ऋण देना,
- बाजार सम्बन्धी सूचना की जानकारी देना,
- मूल्यों में स्थिरता लाना एवं
- अपने सदस्यों को कच्चा माल, बीज, खाद आदि ‘.. कराना है।
संरचनात्मक बेरोजगारी-
जब देश में पूँजी के साधन सीमित होते हैं और काम चाहने… की संख्या बराबर बढ़ती जाती है तो कुछ व्यक्ति बिना काम के ही रह जाते हैं, क्योंकि उनके लिए पर्याप्त -साधन नहीं होते हैं। इस प्रकार की बेरोजगारी को संरचनात्मक बेरोजगारी कहते हैं।
अदृश्य बेरोजगारी-
बेरोजगारी का यह स्वरूप प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं देता । यह छिपा रहता है। भारत में इस प्रकार की बेरोजगारी कृषि में पाई जाती है जिसमें आवश्यकता से अधिक लगे हुए हैं। यदि इनमें से कुछ व्यक्तियों को खेती के कार्य से अलग कर दिया जाए तो उत्पादन में कोई अन्तर नहीं पड़ता है ।
अल्प-रोजगारी-
जब किसी व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुसार कार्य नहीं मिलता है या पूरा काम नहीं मिलता है तो इसे अल्प-रोजगारी कहते हैं। जैसेजब एक इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त व्यक्ति लिपिक या श्रमिक के रूप में कार्य करता है तो इसको अल्प-बेरोजगारी कहते हैं।
खुली बेरोजगारी-
जब व्यक्ति कार्य करने के योग्य हैं और वे कार्य करना चाहते हैं, लेकिन उनको कार्य नहीं मिलता है तो ऐसी स्थिति को खुली बेरोजगारी कहते हैं ।
मौसमी बेरोजगारी-
इस ग्रकार की बेरोजगारी वर्ष में कुछ अवधि के लिए पाई जाती है । भारत में यह कृषि में पाई जाती है। जब खेतों की जुताई एवं बुवाई का मौसम होता है तो कृषि उद्योग में विन-रात काम होता है। इसी प्रकार जब कटाई का समय होता है तो फिर कृषि में काम होता है, लेकिन बीच के समय में इतना काम नहीं होता है। अतः इस प्रकार के समय में श्रमिकों को काम नहीं मिलता है। इस बेरोजगारी को मौसमी बेरोजगारी कहते हैं।
शिक्षित बेरोजगारी-
- यह खुली बेरोजगारी का ही एक रूप है। इसमें शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार होते हैं। शिक्षित बेरोजगारी में कुछ व्यक्ति अल्य-रोजगार की स्थिति में होते हैं जिन्हें गेजगार मिला हुआ होता है, लेकिन वह उनकी शिक्षा के अनुरुप नहीं होता है।
- भारत में बेरोजगारी संरचनात्मक, अदृश्य, अल्प, खुली, मौसमी तथा शिक्षित बेरोजगारी के रूप में है।
- भार में बेरोजगारी के कारण जनसंख्या में तीव्र गति से वृद्धि, हस्तकला व लघु उद्योगों की अवनति, दोषपूर्ण नियोजन,
- पूँनी निर्माण की धीमी गति, पंजीकरण, विदेशों से भारतीयों का आगमन, शारीरिक काम के प्रति अरूचि।
भारत में बेरोजगारी दूर करने के लिए मुख्य सुझाव-
जनसंख्या वृद्धि पर प्रभावपूर्ण वृद्धि पर प्रभावपूर्ण निर्य्रण, प्राकृतिक साधनों का सर्वेक्षण, उद्योगों का विस्तार, कृषि आधारित उद्योगों का विकास, रोजगारप्रधान योजनाएँ, उद्योगोंकी पूरी-पूररी क्षमता का उपयोग, उपयुक्त जनशक्ति नियोजन, विनियोग दर में वृद्धि, गाँवों में विद्युतीकरण, ‘ सड़क निर्माण, शिक्षा का विस्तार आदि |
समाप्त
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